ना जाने कब !
ना जाने कब !
वो बेमतलब की हँसी,
ना जाने कब हाथों से फिसलने लगी,
ना जाने कब वो रात की चाँदनी
अमावस लगने लगी।
ना जाने कब फज्र की लाल छटा
भी कम सी लगी,
न जाने कब चेहरों पर नकाब हैं
या नकाबों में चेहरे इस फ़र्क़ की ही दूरी मिटी।
न जाने कब उलझनों की परतों में
जकड़ी यह अपनी कहानी लगी,
ना जाने कब बिखरते नशेमन को
संवारने की तलब सी लगी।
ना जाने कब मन के गुज़रगाह पर
जंग लगने लगी,
ना जाने कब ज़ज़्बातों को
दफ़न होते देर न लगी।
ना जाने कब आंखों की नमी
ख़्वाबों को बहा ले गई,
और फिर जो संभला तो
यूँ संभला कि,
मुलाकात मेरी उस ज़िन्दगी की
हक़ीक़त से हुई।
जिस आइने में देखने की
पहले कभी ज़हमत ना हुई।
बेतरतीब सी राहों पर
पाने को मंज़िल जो हुई,
तो फलक तक जाने की हिम्मत भी हुई।
हर दफा गिरकर उठने की कोशिश जो हुई,
बहुत शिद्दत से हुई।
किसी रोज़ मुक़द्दर को
झुकाने की साज़िश जो हुई,
बड़ी फुरसत से हुई।
अगर मिले हम फिर किसी मोड़ पर तो
शायद पहचान ना सको
मेरी इस पहचान को जो खुद से हुई।
टूटे बिखरे पड़े टुकड़ों को
समेट खुद को बनाने की जो
ज़ुर्रत जो हुई ,
अब मुकम्मल हुई।