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RAJSHRI YADAV

Inspirational

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RAJSHRI YADAV

Inspirational

मन की अभिलाषा

मन की अभिलाषा

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तोड़ कर बंधन जगत के

अब मैं उड़ना चाहती हूँ

स्वयं को समर्पित कर

खुद से जुड़ना चाहती हूँ।


बहुत गुजरी सिर झुकाते 

अपने मन के भाव दबाते

स्वार्थी रिश्तों के मोहजाल से

अब मुक्त होना चाहती हूँ।


ज़िंदगी की भागदौड़ में

जिन सपनो को दफन किया मैंने

आज अपने उन सपनों को

खुला आसमान देना चाहती हूँ ।


पूर्ण समर्पण दिया सभी को

मन को बाँधा फर्ज की जंज़ीरों से

क्यों मिला नही मुझको वो समर्पण

इन सारे प्रश्नों के अब मैं उत्तर चाहती हूँ।


दो पाँव का सफर था मेरा

एक से चलती रही मैं

लड़खड़ाती ज़िन्दगी में

अब संभलना चाहती हूँ।


कहाँ थी धरती मेरी और

कहाँ था मेरा आसमाँ 

इस पाषाणी जगत में 

पवित्र प्रेमानुभूति चाहती हूँ।


तृषित अतृप्त मन की चाह का

अंत कर अब इस मृगतृष्णा का

परमात्मा के परमप्रकाश में

अब विलीन होना चाहती हूँ।


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