STORYMIRROR

RAJANI KANTA SAHU

Abstract

3  

RAJANI KANTA SAHU

Abstract

मेरा वजूद

मेरा वजूद

1 min
152

आंख पत्थर सी हो गई है

आंसू जम गए है सीमेंट से

बदन छैनी से कुरेदा गया है

गहराई तक

खून पसीने सारे सुख गए है

वक्त के साथ चलते ।।


पता नही कहाँ से चले थे

और जाना भी था अब कहां

क्या पाने चले थे

अब क्या खोने चले हैं हम

कुछ पता नहीं ।।


आंख नही पहँचती अब वहां तक

जहां तक बना दिया हमने

घरों की दीवारे

सोच नही पाते अभी

उस पार होता क्या है ?

अब तो गेट से धुतकार दिया जाता है

हमारी वजूद को

पता नही जैसे हम क्या है।।


अब पत्थर सी हो गई है आंखे

अपना घर तलाशते हुए

देखे हैं अपनो को पराए होते हुए

सरिया सी चुभ गया हे दिल ए जमीन पे

मरहम के नाम से रेत भर लेते हैं

फिर ईंट पत्थर से खड़े होते हैं

कोई नया दीवार खुद के लिए बनाते हुए।।


जामा भी कटी पतंग सा उड़ता है हवा मे

छालो को वक्त नही पांव में

फिर जुड़ने के लिए

चप्पल में चांद सूरज नजर आने लगे हे अब

ख्वाब मर चुके है

वक्त नहीं उनमें जान फूंक ने के लिए ।।



இந்த உள்ளடக்கத்தை மதிப்பிடவும்
உள்நுழை

Similar hindi poem from Abstract