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Aanand Saagar

Abstract

4.8  

Aanand Saagar

Abstract

मैं

मैं

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240


मैं दीपक बन बैठा जग में,

जग आग लगाकर हँसता रहा

मैं हरपल इसमें जलता रहा ।


साहिल ने ठुकराया मुझको

तूफाँ ने तब एहसान किया,

थी कश्ती अपनी डूब रही

लहरों ने दामन थाम लिया।


फिर दुःख के भँवर भरे सागर

की मौजों में मैं पलता रहा।

मैं...।


साँसों का आना जाना बस

जीवन की यही पहचान रही,

मेरे अन्तस् की गहराई से

धरा सदा अंजान रही।


हर राह विचारों के पत्थर

मैं नीर लुटाता चलता रहा।

मैं...।


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