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Sushant Das

Abstract

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Sushant Das

Abstract

मैं हूं के मैं नहीं

मैं हूं के मैं नहीं

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कभी-कभी तन्हाइयों में बैठ

सोचता हूं मैं अक्सर।

यूं खो सा गया हूं भीड़ में,

मैं हूं कि मैं नहीं।


बचपन में बुने थे ख्वाब कई,

बनाऊंगा अपनी पहचान कहीं।

लेकिन ऐसा चलता गया

किस्मत की राह पर,

शर्म से झुक गया अपना ही सर।


क्या बिताया सारा जीवन इसके लिए ?

क्या गुजरा वो बचपन 

किताबों के बोझ ताले,

कि बन सकूं मैं भीड़ का हिस्सा ?


क्या है सपना क्या है यथार्थ

यह परे है अब मेरी समझ से।

डर लगता है मुझे अब

मैं हूं कि मैं नहीं।


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