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मैं बेटी इस समाज की

मैं बेटी इस समाज की

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हे भगवान ! क्यों दिया मुझे ये श्राप ?

क्या एक बेटी होना ही था मेरा पाप ?


हे माँ ! क्यों किया जन्म से पहले ही मेरा तिरस्कार ?

कोई मुझे बताये क्या यही होता है, एक बेटी होने का पुरस्कार ?


अभी तो न खोली थी आँखें, न देखी थी दुनिया,

फिर ऐसा क्या हुआ, जो दे दी हमेशां की ये गहरी निंदिया ?


अगर ज़िंदा होती तो खेलती तुम्हारे अंगना,

छम-छम करती पायल और खन-खन करती कंगना।


अगर जीवित होती तो बनती आपका गौरव व सम्मान,

बनती आपका बेटा और करती इस दुनिया में आपका नाम।


एक अवसर तो दिया होता, इस दुनिया में आने का,

कुछ खोने का नहीं बस, आप दोनों का प्यार पाने का।


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