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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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मातृदिवस की विडंबना

मातृदिवस की विडंबना

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आज मातृ दिवस है

पर क्या यह विडंबना नहीं है ?

जो हमें मातृदिवस मनाना पड रहा है

माँ की ममता का उपहास उड़ाना पड़ रहा है

यह आधुनिकता की कैसी बयार है ?


जो हमें अपने जन्मदात्री के लिए भी

दिवस की औपचारिकता निभानी पड़ रही है,

शायद अब हमें मां भी औपचारिक लगने लगी है

या महज कथा कहानियों में खो गई है

तभी तो हम मातृ दिवस मना रहे हैं


माँ के कलेजे को छलनी कर रहे हैं

या हम माँ को माँ ही नहीं मानते

सिर्फ अपने जन्म देने वाली मशीन समझने लगे हैं

तभी तो आज माँए भी निष्ठुर होने लगी हैं

मजबूरन कलेजे पर पत्थर रख रो रही है।


हम माँ को शायद समझ नहीं पा रहे हैं

या आधुनिकता की चपेट में आते जा रहे हैं

माँ को माँ नहीं समझ पा रहे हैं

मातृदिवस की औपचारिकता में झूला झुला रहे हैं

माँ का आज हम अपमान कर भी 

बेशर्मी से मुस्करा रहे हैं,


माँ को मान देने की औपचारिकता निभाने के लिए

मातृदिवस मना कर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं।

माँ के कलेजे को रोज चीर रहे हैं

उनके जीवन की डगर में मौत के काँटे बिछा रहे हैं

माँ की ममता पर प्रहार कर रहे हैं

माँ और अपने रिश्तों की बड़ी दुहाई दे रहे हैं


माँ की ममता का उपहास कर रहे हैं

माँ से अपने रिश्ते को अहमियत देने की बजाय

माँ को भी आम रिश्तों के समतुल्य

आज हम समझने लगे हैं।

मातृदिवस की औपचारिकता बड़े प्यार से

हम सब निभा कर बहुत खुश हो रहे हैं

माँ की ममता को हम ही आइना दिखा रहे हैं


अपनी औलादों के लिए आज हम ही

आधुनिकता की नई नजीर पेश कर रहे हैं। 


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