माँ
माँ
माँ जो रही प्रथम गुरु मेरी, राह सही दिखलाई ।
थी कठोरता आवश्यक तो नरमी तनिक न लाई ।।
इकलौती सन्तान रहा फिर भी न किया समझौता।
गलती करने के मौकों ने पाया कभी न न्यौता ।।
ज्यों ही गलती हुई, टोकती झट सुधार बतलाती।
नरम कठोर जरूरी जो हो झट वैसी बन जाती।।
पितृहीन था फिर भी यह हीनता न मन में आयी।
उभय भूमिकाओं की थी शत प्रतिशत उत्तरदायी ।।
बचपन में ही जीवन के हितकर संस्कार पिरोये।
हुए अभिन्न सभी स्वभाव के लगें न लादे ढोये ।।
एक एक कर याद आ रहीं उनकी सीखें सारी।
जाने कितनी कठिन बाजियां उनसे मैंने मारी।।
सुदृढ़ नींव की ईंटें बनकर स्वावलम्ब दे डालीं।
बचपन को पाली पोसी सारा व्यक्तित्व संभालीं ।।
उसी नींव पर खड़ा हुआ मुझ प्रहरी का यह जीवन ।
जीवन पथ पर बढ़ा, अडिग पग साधा निज प्रहरीपन ।।
परम पूजनीया उस माँ को करूं समर्पित यह कृति ।
माँ ! दे दो आशीष बढ़े इसकी प्रियता की परिमिति ।।
स्वान्तः सुखाय में सबका सुख आकर समाये ।
लघु प्रयास यह मेरा जग में अक्षय कीर्ति कमाये ।।
