कविता:_सोच में फर्क
कविता:_सोच में फर्क
घरों से घरानों तक
वही कहानी, वही किस्से
वही लकड़ी, वही चूल्हे
वही दुख, वही सुख
वही दिन, वही रातें
घरों से घरानों तक।
वही खून का रंग
वही प्यास का गला
वही चेहरे की हंसी
वही आंखों के आंसू
घरों से घरानों तक।
रंग भी वही ,रूप वही
हाथ भी वही, पैर भी वही
नींद भी वही, बातें भी वही
दिल भी वही ,धड़कन भी वहीं
घरों से घरानों तक।
रास्ते भी वही, बाजार भी वही
नदियां भी वही, तालाब भी वही
मिट्टी भी वही, पर्वत भी वही
खेल भी वही, मैदान भी वहीं
घरों से घरानों तक।
सूरज भी वही, चांद भी वही
आकाश भी वही, पाताल भी वही
उजाला भी वही ,अंधेरा भी वही
धूप भी वही,छांव भी वही
घरों से घरानों तक।
कंधे भी वही, अर्थी भी वही ,
जीवन भी यही, मरना भी यही
खोना भी यही, पाना भी यही
फिर सोच में इतना फर्क क्यों ?
घरों से घरानों तक।
