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Akshay Kathuria

Abstract

4.9  

Akshay Kathuria

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खरोंचे

खरोंचे

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किनारे के पास बैठे बैठे  

तुम्हारे ख़याल आते है,


उन् आती हुई लहरो के साथ, पक्के से हो जाते है,

और उन्ही जाती हुई लहरो के साथ, धुंधले से हो जाते है!


किनारे के पास बैठे बैठे  

तुम्हारे ख़याल आते है,

 

उगते हुए सूरज की तरह, रोशन से हो जाते है,

डूबते हुए सूरज की तरह, मद्धम से हो जाते है!


किनारे के पास बैठे बैठे  

तुम्हारे ख़याल आते है,


की तुम सुबह चिड़ियों के, चेह-चहाने में आते हो,

और शाम को उन्ही के संग, घर लौट जाते हो!


किनारे के पास बैठे बैठे

तुम्हारे ख़याल आते है,


की किनारा तो वही है, जहाँ तुम रोज़ आती हो,

और वही तनहा सा रह जाता है, जब तुम चली भी जाती हो!


किनारे के पास बैठे बैठे

तुम्हारे ख़याल आते है,


की क्या तुमको, कभी फ़र्क़ नहीं पड़ा,

की क्या मैं खुश हूँ, ऐसे कुछ सवाल आते है!


किनारे के पास बैठे बैठे  

तुम्हारे ख़याल आते है,

उन् ख्यालो में छुपे, कई सवाल आते है!


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