ख़ामोशी
ख़ामोशी
वो लफ्ज़ थे ही नहीं मेरे पास
जो हाल-ऐ-दिल बयां कर पाते,
काश तुम मेरी ख़ामोशी को
थोड़ा सा वक़्त देते।
मेरे हालातों से तुम भी
मुँह मोड़ कर चल दिए,
काश मेरी झुकी नज़रों को
उठने का मौका देते।
खता ऐसी भी क्या थी मेरी,
जो तुम यूं खफ़ा हो गए,
मेरे गुनाहों का
कोई इशारा तो देते।
साथ मरने की कसमें
कई बार खायीं तुमने,
कभी साथ जीने का
मौका तो देते।
