ख़ामोश क़लम
ख़ामोश क़लम
मेरा हर पन्ना था ख़ामोश जिंदगी की किताब का।
बाक़लम उकेरता रहा मैं दर्द अपने ही हिसाब का।
ऐसा कुछ भी ना लिक्खा था लेखनी ने तो उसमें।
बेश़क गुनाह मेरा ही था जो खुली छोड़ दी थी मैंनें।
जानें क्या पढ़ा जग ने उसमें वो बेनक़ाब हो गई।।१।
जो कुछ भी लिखा था वो दर्द तो मेरा नहीं था।
असल शब्दों को अश्कों के जल में डुबोया था।
चल रही पाश्चात्य हवाओं को तनिक मोड़ा था।
शब्द को सिला शब्द से पंक्तियाँ लिखी पृष्ठ पर।
संस्कृति के कद्रदानों ने पढ़ा वो लाजवाब हो गई।।२।
क्यों न लिखूँ मैं बंशी धुन में सनी सी बयार को।
पावन नर्मदा की कल कल पायली झंकार को।
मंदिरों के शंखनाद की मंत्रशक्ती मंत्रोच्चार को।
हरे बाँस और आमपत्तों के मंडपी ललकार को।
टूटा जब सपना सहर हुई, वो आफ़ताब हो गई।।३।
कर्ण ने वज्र शायद क़लम को ही दिया था।
धावों के आँगन से सबको नमन किया था।
भूखा था पेट स्याही से सतत लिखती रही।
सारा जहाँ बना अंजान, वाह कहकर जब।
रोटी से ही लड़ते लड़ते वो आज़ाद हो गई।४।।
....मेरा हर पन्ना था ख़ामोश जिंदगी की किताब का।