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rit kulshrestha

Abstract

4.5  

rit kulshrestha

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खामोशी

खामोशी

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आज इतने सन्नाटे में सुई की भी आवाज़ होगी

खामोशी की भी जबान होती है

सुनने समझने वाले की दरकार रहेगी।


बहुत बार निकले हैं इन रास्तों से

अब वो बात नहीं,

जिस्म में वो ताकत न मन में वो जज़्बात।


बस तेरा मेरा का रेलपेल है

हर कोई अनजान,अबूझ पहेली

न वो बेपरवाह न वो अठखेली।


शिकन की लकीर

और शिकायतों का पुलिंदा

कुछ भेड़चाल कुछ तन्हाई की शिकार।


सब लगते हैं बीमार

इस खामोशी ने मन को

दूर कर जीवन को अकेला कर दिया।


पहले की खमोशी

लोरी सी लगती थी

सिर्फ रात को दर्शन देती थी।


आज सब कुछ बदला है,

सन्नाटे में बदली यह खामोशी।


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