खाली
खाली
दरिया को बहता देख, घबरा गया था
सोचने लगा था
कही खाली न हो जाये।
स्फुर्ति से भरे हुए पानी की धार
अपनी गति से आगे बढ़ रही थी,
एक पत्थर से होते हुए, दूसरे पत्थर पे टकरा कर
अपने धार से पुनः मिल रही थी।
मौज तो उनके साथ मैं भी कर रहा था
जी चाह रहा था समेट लूँ उस धार को
अपनी किसी बड़ी लुटिया में।
एक डर था,
इस जगह से लगातार बह कर, वो धार,
कही इस दरिया को खाली न कर दे।
ये सोच कर, कैद कर लिया मैंने उस चंचल धार को
अपनी एक बड़ी से लुटिया में,
पानी अब भी वहीं थी
पर स्फुर्ति और वेग, कही खो गयीं थी
भर गई थी मेरी लुटिया
पर असल मे खाली हो गई थी वो दरिय
ा की धार
अपनी विशेषताओं से, और पहचान से
पूरी तरह खाली हो गई थी।
मन मे दुःख और हताश बहुत हुई,
लगा था उन सब को अंदर समेट लूँ
बहने न दू, किसी भँवर में।
फ़िर, कुछ सोच के लुटिया का पानी खाली कर दिया
दरिया के उछलते धार में।
जो अभी तक शांत और स्थिर पड़ी थी
अचानक से भर गई थी, आमोद के रस मे,
उछल के पत्थरो से वापस टकरा रही थी
झूमते हुए, मचल के जा रही थी।
लुटिया खाली करते ही, मन की हताशा भी
धीमे पाव, हल्के से बाहर निकल गयी
और उस खालीपन में मुझे एहसास हुआ
एक भरपूर उन्माद का,
खालीपन का एक डर छिपा था मन मे
जो उस बहती धार के साथ
अब खाली हो गई थी।