जीवन मर्म
जीवन मर्म
यह जीवन तुमने पाया क्यो ?
इस बात को तुम न जान सके।
जीवन की मूल सार्थकता को,
इक पल भी न पहचान सके।
क्यो आये किसने भेजा यहाँ ?
तुम भूल गए सब पाकर नया जहां।
घिर गए हो तुम अँधियारो में
तृष्णा की इन मझधारों में।
कैसे किसको कब झुठलाये,
स्व:महिमामंडन कैसे करवाये।
तुम लगे हो इन पाखंडो में,
वसुधैव कुटुंब हुए नहीं
खंडित हो बस खंडों में।
भौतिकता की अंधी आंधी में मत बहो,
मानव हो कम से कम मानव तो रहो।
दुःख दर्द बांटना जीवन है
मानवता का सच्चा यह धन है।
जागें हम सब अब भी कुछ गया नहीं,
वरना एक दिन हम पछतायेंगे।
मानव हो कर भी 'अनुराग'
खुद पर ही हम शर्माएंगे।