हर नारी की ख़्वाहिश - साथ
हर नारी की ख़्वाहिश - साथ


वो अकसर रोया करती है,
जब भी अकेली हुआ करती है,
ऐसे वो ही नहीं,
हर नारी हुआ करती है।
ना सुनने वाला होता कोई,
ना समझ सकता नारी को कोई,
इसलिए अपने आँसुओं को हर रोज,
मुस्कुरा के छोड़ा करती ही।
कभी अपने को नहीं,
केवल अपनों की ओर देखती है,
नारी अपने आँसुओं को केवल,
अपने तकिये पर निचोड़ देती है।
कभी सिर पकड़ती है, कभी करवट लेती है,
हर नारी अपने लिए नहीं,
अपनों के लिए जीती है,
अकसर वो जब अकेली होती है,
तभी रोया करती है ।
सब से मुस्कुरा के मिलती है,
मिलती सबसे खुशी- खुशी,
अपने मन की उलझनों को,
फिर भी दिल में छुपाए रखती है,
क्योंकि वो नारी है,
पूरी दुनिया को साथ लिए चलती है।
बताने को तो होती है,
उस पे भी बहुत सी बातें,
लेकिन रोने को नहीं मिलती,
उसे कभी किसी की गोद प्यारी ।
शादी से पहले हो,
या शादी के बाद की बात,
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नारी को देनी होती है,
अग्नि परीक्षा हर बार,
क़िस्मत को कोसती है,
कभी ख़ुद को कोसती है,
मैं नारी हूँ,
यही कह के अपने हर आँसू को पोंछती है।
ना बोलती किसी से, चुप सी हो जाती है,
किस पर भरोसा करूँ,
बस अकेली ही खड़ी होती है,
जब-जब किया उसने भरोसा,
टूटता रहा उसका विश्वास,
वो किस पर भरोसा करे,
यही प्रश्न होता है हर नारी के पास।
कोई बातें छुपाता है,
तो कोई करता है नारी का तिरस्कार,
फिर भी वो सहती है दर्द बार-बार,
जब कभी पूछती है वो अपनों से,
कि वही क्यों सहे दर्द हर बार,
तो जवाब में नहीं मिलता उसको उसका अधिकार,
नारी को नहीं चाहिए किसी की दौलत,
किसी के सोने की हार,
नारी तो चाहती है,
उसका हाथ थाम के,
उसका दो सच्चा साथ,
उसका करो सम्मान,
ना करो उसका तिरस्कार बार-बार।
क्यूँकि वो नारी है,
अकसर रोया करती है,
जब भी अकेली होती है हर बार।