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Mahima Shree

Abstract

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Mahima Shree

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गुफ्तगू माँ से

गुफ्तगू माँ से

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माँ ! ये कौन सी  सफलता है ?

ये कैसा लक्ष्य है?

जो ले आया है तुमसे दूर 

बहुत दूर।


ये कैसी तलाश है?

कैसा सफ़र है?

कि मैं चल पड़ी हूँ

अकेले ही तुम्हे छोड़ कर !


ये कैसी जिद है मेरी

ठुकरा कर छत्र छाया तेरी

निकल पड़ी हूँ

कड़ी धूप में झुलसने को।


पर जानती हूँ

तेरी दुआएं है  चलती है संग मेरे 

हर तपिश को शीतल कर देती हैं

ठंडी बयार बन कर।


आती है याद मुझे तू

हर दिन

हर रात


फिर से तेरे आँचल में

छुपने का दिल करता है

फिर से तेरे हाथों की बनी 

रोटियां खाने को जी करता है

पर तुमने ही कहा था न माँ


चिड़िया  के बच्चे

जब उड़ना सीख जाते हैं,

तो घौसलों को छोड़

लेते हैं ऊँची उड़ान   

और निकल जाते है दूर


मैं भी तो निकल आई हूँ दूर

बहुत दूर

लौटना अब मुमकिन नहीं

क्योंकि राहें कभी मुड़ती नहीं

और प्रवाह नदी का

उलटी दिशा में कभी बहता नहीं।


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