एक पिता का सच
एक पिता का सच
मैं छोटा था और ना समझ भी
वो मुझे अपनी रोटी के बीच का
हिस्सा खिलाता था,
और खुद भूखा ही रह जाता था
दिन भर वो मेहनत करता था
फिर भी शाम को खुश होकर
ही घर आता था
खुद ना पढ़ पाया पर मुझे हमेशा
प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया
अनपढ़ ना रह जाऊँ यही उसकी
तकलीफ़ थी,
इसलिए उसने हमेशा मुझे दुनिया
भर से लड़ना सिखाया
कभी जिंदगी में उसने मुझपे हाथ
ना उठाया
कभी डांटा भी तो मैं ही उसपे
चिल्लाया
सर्द रातों में खुद नंगे बदन रह के भी
उसने मुझे कम्बल ओढ़ाया
खुद दो पैसे बचाने को हमेशा साइकिल
पे चला
पर मुझे हमेशा बाइक पे रास्ता दिखाया
मेरे सामने मुझे बुरा भला कह खुद बुरा
कहलाया, और अंदर ही अंदर खुद रोकर
अपना रोना छिपाया
उसकी तकलीफ़ का अंदाजा ना था,<
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इसलिए मैं उसे कोसता था
पर उसे आने वाली हर तकलीफ़ का
अंदाजा था
वो चाहता था में दुनिया से लड़ सकूँ,
इसलिए खुद मुझे समझाता था
साथ ना दिया उसका किसी परिवारवाले ने,
पर वो खुद शरीर से लाचार पर बुलंद हौसलों
का पुलिंदा था
बिस्तर पर गुजारे उसने ना जाने कितने महीने,
पर फिर भी उसे हमारा ही ख्याल था
खुद की तकलीफ़ से ज्यादा उसे,
हमारी जिंदगी संवारने से प्यार था
चल ना पाया तो,
लकड़ी के सहारे उसने लड़ने का बीड़ा
उठाया था
उसकी इसी तकलीफ़ ने हमें इस लायक
बनाया था
वो पिता था साहेब वो पिता था,
जो अंगारों पे जिस्म जला पिता कहलाया था
जो अंगारों पे जिस्म जला पिता कहलाया था
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