दूजे गुलिस्तान में
दूजे गुलिस्तान में
परिन्दों से मत पूछो कि
उनका आशियां कहाँ है
जहां ठहर जायें
वही बसेरा है
सवेरा होते ही उड़ जाते हैं
खुले आसमां में
साँझ तले घोसले में
सिमट कर रह जाते हैं
ये तो है उनका हर दिन का
ज़िन्दगी का सफर
कुछ ऐसा ही
हाले दिल है बिटियों की
आज आपके घर आंगन को
महकाती है
तो कल के नये सवेरे में
दूजे गुलिस्तान में
उड़ जाती है
और इस तरह
बसंत ऋतु में
दोनों जहां को
फूलों की खुशबू से
जन्नत सा रोशन कर जाती है
परिन्दे हो या बेटियां
फर-फर कर उड़ जाती है।