चिट्ठी
चिट्ठी
ट्रेन का वक़्त हो गया था
और उसके घर आने का भी,
तेरह साल गुज़र गए थे
साथ रहते रहते,
कभी मैं छोड़ आयी थी
सब, उसके लिए,
अब उससे छोड़ आयी हूँ
उसके लिए,
कभी ऐसे ही कशमकश में खड़ी थी
कुछ साल पहले,
क्या वो आएगा?
क्या वो मुझे समझ पायेगा?
क्या मेरे परिवार वाले कभी माफ़ कर पायेंगे?
क्या आगे सब ठीक होगा?
बहुत सवाल थे मेरे मन में,
लेकिन वक़्त नहीं था जवाबों के साथ
मन बेचैन था मेरा,
साँसें भी तेज़ी से चल रही थी
उसके आने का इन्तेज़ार था बस,
सब मंजूर था मुझे
लेकिन सब उसके साथ,
ट्रेन आ गई थी,
दो मिनट ही रुकने वाली थी
अभी तक नहीं आया,
चिट्ठी में साफ़ लिखकर दिया था
वक़्त पर आना है,
नहीं तो मैं खुद चली जाऊँगी उसके बिना
साँसें अटक रही थी मेरी,
मैंने इधर उधर देखा
मैं चढ़ गई,
आँखें भर चुकी थी अबतक
एक आवाज़ ने मुझे चौंका दिया,
"क्यूँ भयी, अकेले जाने का फ़ैसला कर लिया क्या?"
मैं रो पड़ी,
वो ऊपर आ गया
मेरा हाथ पकड़ कर उसने कहा,
"कहा था ना अकेले नहीं छोड़ूंगा कभी तुझे?"
फिर इतना वक़्त कहाँ लग गया था?
मैंने गुस्से से पूछा,
"सॉरी",
उसने ज़वाब दिया।
"सॉरी",
मैं तुझे वक़्त नहीं दे पायी
ट्रेन की हॉर्न ने मुझे,
वर्तमान मे ले आयी
ट्रेन प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी,
मैं हिचकिचाते हुए उसमें चढ़ गई
मैं चिट्ठी छोड़ आयी थी उसके लिए,
और माफ़ी भी माँग आयी
वज़ह नहीं दे सकती थी,
की मैं क्यूँ जा रही हूँ
हिम्मत नहीं थी जाने की,
मैं बार बार प्लेटफॉर्म को देख रही थी
लेकिन उसको दर्द में नहीं देख सकती थी,
सब बताना उसको मुनासिब नहीं था अब
क्या कहती,
वक़्त नहीं है मेरे पास अब
या मैं अब बस दो महीने तुम्हें परेशान कर सकती हूँ,
बहुत कोशिश की ना रोने की
लेकिन ट्रेन चलने के बाद नामुमकिन था,
मैं अब भी दरवाज़े के पास खड़ी थी
शायद उसके आने के इन्तेज़ार में,
जो की मुमकिन नहीं था
ना अब कभी होगा।
