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Ravindra Kandpal

Abstract

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Ravindra Kandpal

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भ्रमित

भ्रमित

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अन्तर्मन में द्वंद है ये

किस राह चलूं प्रतिबंध है ये,

हूँ लुप्त अनन्त गगन में मैं 

क्यूँ राह नहीं मैं पाता हूँ?


धरा गगन सब शून्य में है

स्मृति का कोई आधार नहीं,

मैं विस्मृत होकर बैठा हूँ

भ्रम का कोई आकर नहीं।


परिधि में मैं घूम रहा

विस्तृत इसका आकार नहीं,

मैं केंद्र से ना मिल पाता हूँ

यूँ लौट वहीं फिर आता हूँ। 


राह दिखे ना शून्य मिले

मधुबन में ना फिर पुष्प खिले,

जीवन रूपी भवर में मैं

हर क्षण फँसता ही जाता हूँ। 


क्यों राह नहीं मैं पाता हूँ?


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