भीड़
भीड़
बन कर अनुगामी इक भीड़ का, सदियों से है चलता आया तू,
पीछे चला जो जग के, राह खुद की ना बना पाया तू।
जिस भी राह पर पड़े कदम, एक मेले जैसी भीड़ थी,
जिधर भी भरा दम, भेड़चाल की ही छपी रसीद थी ।
जनम लिया जब धरती पर, एक प्रतियोगिता सा उन्माद था,
कैसे चखना है सफलता का रस, बस इसी का सब में संवाद था ।
वही निर्धारित पथ पर तुम चलते रहना,
जिधर चले यह जग उधर ही तुम बढ़ते रहना ।
विद्यालय जाकर तुम बस बेहतर होते जाना,
और अंको के इस खेल को जीवन भर तुम दोहराना।
समाज में अगर प्रतिष्ठा का ध्वज तुम्हें लहराना है,
जो सब कर रहे है नौकरी , वही सफलता का पैमाना है ।
इन सामाजिक बोझों के जो आया तू अधीन ,
अस्तित्व खुद का लिया तूने खुद से ही छीन।
बना जो तू भी इस भीड़ का अब हिस्सा है,
धुंधला सा हुआ तेरा भी तब किस्सा है।
पर ना होना इन हालातों से हताश तू,
बस करना खुद में खुद की तलाश तू ।
जो खुद इस भीड़ से हटकर बदली तूने अपनी दिशाएं,
आशा की नज़र से खिल उठेगी कई निगाहें ।
जो इस भेड़चाल से तुमने खुद को विच्छेद किया,
जीवन के चक्रव्यूह को समझो तुमने भेद दिया ।