अंधेरे का डर
अंधेरे का डर
बाहर के उजाले चाहे लाख हों
अंदर के अंधेरों से डर लगता है
शून्यता के जंगल में भटक रहे हैं
कोई रास्ता नजर नहीं आता है
निराशा , विषाद , अमर्ष से घिरे
नकारात्मकता के समंदर में फंसे
जिए जा रहे हैं निरुद्देश्य, नासमझ
अंधेरों में डूबे सहमे डर डर के
जब तक कृष्ण रूपी दीप न जले
तब तक रास्ता न सूझे, कैसे चले ?
अंधेरों से निकलना है तो गीता पढो
प्रभु के चरणों में मन स्थिर करो
एक वही है जो परमात्मा है, दयालु है
सब पर जिसकी असीम कृपा है
वही तो हैं जो प्रकाश पुंज हैं
जब उनकी शरण में हो जायेंगे
तो फिर कैसा डर, किसका डर
अंधेरे उजाले बन जायेंगे
इस भवसागर से तर जायेंगे।
जीवन का यही सार है
उसकी महिमा अनंत अपार है।
