अंबाला की लड़की
अंबाला की लड़की


आधी आबादी आधी नहीं है
परदेसों में, आंकड़े बोलते हैं
वो आधी से कुछ ज़्यादा है
पर इधर, उस चौराहे,
कुछ दूरी पर
हमारी आबादी
बेमौसम स्टोल से जकड़ी है।
और भी बुरा ये,
वो आधी से काफी कम है।
सलमा ने पर्दा छोड़ दिया,
तो स्टोल से दामन ढकती है,
ढकना ज़रूरी है।
अब कल को तंग चौराहे
स्टोल से पहचानी जाएगी।
हां, वजह प्रगतिवाद नहीं
वो पर्दे में गुम हो जाती थी।
और ध्यान रहे
इनके पर नहीं निकलने चाहिए,
क्योंकि चरित्र के आकाश में
पक्षी उन्मुक्त नहीं,
बदचलन होते हैं।
'हमारी लड़की',
कोई 'गलत नज़र' से न देखे
और देखे भी तो उसे दिखे
रजत पर्दे पे शून्य तस्वीर।
जब 1 और 2 मां-बापों,
सास-ससुरों की टीवी
चलेगा 'चित्रहार',
अधनंगे बदनों को भूल,
'धुन' की चर्चा होगी।
आधा जश्न मनाकर,
वो स्टोल धुलने जाएगी,
किसी खूंटे टांग जिस्म का
जैसे कोई अंग
वो देखेगी।
बिना सफेद,
शून्य में अटके
किसी स्टोल वो नायिका
कितनी बेफिक्र,
कितनी उन्मुक्त,
कितनी सुंदर दिखती है।
कोई आंख उठाकर ना देख पाया,
बीते उम्र के 20 साल
कभी पर्दे, कभी चुन्नी,
कभी स्टोल के रोशनदानों से,
देखी सांसारिक माया की छनी रोशनी।
पर एक दिन उसे शर्माना होगा
कि कोई उसे देखे,
कोई नौकरी वाला देखे
रजत पर्दे पे रंगीन तस्वीर।
वो पुणे या दिल्ली या
मायानगरी की बाला नहीं
वो अंबाला की लड़की,
उसे प्यार नहीं 'संसार' मिलेगा।