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गुलामी पाप है

गुलामी पाप है

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एक थे गुलाम हुसैन खाँ। शहर फैजाबाद। बाप-दादा बहुत बहादुर थे। अस्त्र-शस्त्र चलाने में उनका जवाब नहीं था। उनके यहाँ एक बेटा हुआ। प्यार से नाम रखा अहमदशाह। बचपन से ही उसे तलवार चलाना सिखाया गया। एक दिन उसके सपने में एक परी आयी। वह परियों का ज़माना था न। परी को देखकर वह बहुत खुश हुआ। परी को उसने तलवार चलाकर दिखाई। साथ ही घुड़सवारी भी करके दिखाई। परी तो दंग रह गई। उसने उसे शाबासी दी। उसे किताबों का उपहार दिया। बालक अहमदशाह को किताबें पसन्द आईं। पढ़ना इतना अच्छा होता है, उसे पता ही नहीं था। कितना मज़ा आता है। नई नई बातें पता चलती हैं। वह बहुत खुश  था। परी का धन्यवाद भी किया।

 

 वह किताबों को अपना दोस्त मानने लगा। उसे किताबों ने ही बताया था कि मुसलमान हो या हिन्दू, सबसे पहले इनसान होते हैं। परी भी तो कोई भेदभाव नहीं करती। उसने कई बार सपने में देखा था कि कैसे परी सब बच्चों को एक-सा प्यार करती है। चाहे वह कोई भी हो। किसी भी धर्म का हो, किसी भी जाति का हो, चाहे लड़का हो या लड़की।

 

उस समय देश  गुलाम था। अंग्रेजों के। बालक अहमदशाह गुलामी का मतलब जानता था। उसने किताबें जो पढ़ी थीं। जो परी ने दी थीं। उसे पता चला कि अंग्रेज़ों ने चालाकी से हमें गुलाम बनाया था। उसका तो खून ही खौल उठा। दिमाग में तूफ़ान सा आ गया। देश वासियों पर कोड़े बरसाने वाले अंग्रेज़ों को वह तहस नहस करना चाहता था। निडर जो था। उसने महसूस किया कि लोग गुलामी में कैसे घुट घुट कर जी रहे थे। ‘कैसे काटे वह गुलामी की बेड़ियों को’ - वह सोचता रहता। सोचते सोचते उसकी आँख लग जाती। ऐसे ही एक दिन उसकी नींद लगी तो फिर वही परी आई। परी को देख कर खुश  होना ही था। परी ने कहा, ‘तुम चिन्ता मत करो। तुममें हिम्मत है। कुछ कर गुजरने की ताकत है। जल्दी ही तुम्हें सफलता मिलेगी। गुलामी को पाप समझो।’ अहमदशाह खुश हुआ। उसने परी से पूछा, ‘पर तुम कैसे मन की बात जान लेती हो?’ परी बोली - ‘अरे मैं तुम्हारे मन में ही तो रहती हूँ। तुम्हारी कल्पना में। फिर मन की बात क्यों न जानूंगी? तुम्हें थोड़ी तैयारी करनी होगी। लेकिन समझदारी से। औरों को समझाकर एक टोली बनानी होगी। फिर लड़ाई लड़नी होगी। आज़ादी के लिए।’ नींद खुली तो अहमदशाह बहुत खुश  था। उसे रास्ता जो मिल गया था। मन ही मन परी दोस्त को फिर धन्यवाद दिया।

 

उसे जल्दी ही इंग्लैंड जाने का मौका मिला। वह वहाँ के सैनिकों से मिला। पर अपने मन की बात नहीं बताई। भला कौन सी बात? वही देश को आज़ाद कराने वाली बात। बता देता तो अंग्रेज कैद में न डाल देते? उल्लू बनाकर सैनिकों से अस्त्र चलाने की कला सीख ली। रूस, ईरान, ईराक और अरब की भी यात्रा की। उसके बाद तो और भी कई देशों की यात्रा की। लेकिन केवल मज़े के लिए नहीं। कुछ जानने-समझने के लिए, समझदारी बढ़ाने के लिए। परी की बात उसे हमेशा याद रहती।

 

इधर देश  में क्रांति छिड़ चुकी थी। आज़ादी के लिए। देश भक्त अहमदशाह की तो मानों एक बड़ी इच्छा पूरी हो गई हो। यूँ लड़ाई उसे अच्छी नहीं लगती थी। पर अत्याचार के विरूद्ध लड़ना धर्म था। उसने हिन्दू-मुसलमान दोनों को मिलाया और अंग्रेजों को ललकारा। सब उन्हें मौलवी कहते थे। मौलवी अहमदशाह। एक पक्का क्रांतिकारी। उसे बहुत कुछ करना था। लेकिन गुपचुप, गुपचुप। समझदारी से। उधर अंग्रेज भी कम न थे। बहुत चालाक थे। अहमदशाह के बारे में वे सब जान गए थे। इसीलिए उसे पकड़ना चाहते थे। अहमदशाह छिप गया था। अंग्रेज उसे पकड़ने की कोशिश  में जी-जान एक कर रहे थे। लेकिन अहमदशाह चुस्त था। छिप कर अपना कार्य करता रहा। देश  को आज़ाद कराने की धुन अब उस पर पूरी तरह सवार थी।

 

अब आगे आगे अहमदशाह, पीछे-पीछे  अंग्रेज। पीछे-पीछे अंग्रेज, आगे-आगे अहमदशाह। पकड़म-पकड़ाई के खेल की तरह।

 

अंग्रेजों का एक कमांडर था। नाम था कौलीन। बात 7 मई, 1857 की है। न जाने कैसे उसे मौलवी अहमदशाह के छिपने की जगह पता चल गई। अरे बाप रे! अब क्या होगा? भई गद्दार भी तो हाते थे न? उनसे ही कौलीन को पता चला था। वे उसके लिए जासूसी जो करते थे। पैसों के लालच में। अब क्या था। कौलीन तो आग बबूला हो गया। वह गुस्से से चीखा, चिल्लाया और अपनी फौज के साथ शाहजहाँपुर की ओर बढ़ गया। वहीं तो छिपा था न बहादुर अहमदशाह।

 

वह अंग्रेजों से कहाँ डरता था। कौलीन की फौज़ पास आई तो अपने बहादुर देश भक्तों के साथ उस पर टूट पड़ा। घमासान युद्ध हुआ। तलवारें चमकीं। अंग्रेजों के तो होश  ही उड़ गए। अहमदशाह जीत गया। उसकी वीरता और बहादुरी ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। बहादुर अहमदशाह कौलीन को हर जगह हराता चला गया। बच्चू को पसीने आ गये। अरे भई यूँ कहो नानी याद आ गई। देश भक्तों में अहमदशाह की वाह वाह हो गई। सब झूम उठे। गीत गाए। और तो और पेड़ों, पक्षियों और पशुओं ने भी खूब साथ दिया। हवा की तो पूछो ही मत।

 

अहमदशाह के हौंसले बुलन्द थे। अंग्रेजों को हराकर उसने आज़ादी का मज़ा चखा था। साथियों में जोश था। सोचा देश के और हिस्सों को भी अंग्रेजों से छुड़ाया जाए। उसकी निगाह अवध की ओर गई। अवध भी तो गुलाम था न? पर इसके लिए बहुत अधिक सैनिकों की ज़रूरत थी। उसने एक राजा के पास मदद के लिए संदेश  भेजा। राजा ने उसे अपने पास बुलाया। अहमदशाह खुशी-खुशी चला गया। पर यह क्या? किले के दरवाजे उसे बंद मिले। उसे कुछ समझ नहीं आया। थोड़ा सोचा। और फिर नज़र घुमायी। किले पर राजा बैठा था। आस पास सैनिक तैनात थे। अहमदशाह ने अंग्रेजों के खिलाफ हुँकारा और राजा से दरवाजे खोलने को कहा। लेकिन राजा पर कोई असर नहीं हुआ। ज़रूर दाल में कुछ काला है, अहमदशाह को लगा। राजा ज़रूर गद्दार है। वह देश भक्त नहीं है। अंग्रेजों से मिल चुका है।

 

वह भुनभुना उठा। उसने राजा की ओर देख कर कहा, ‘थू है तुम पर। गद्दार। तुम जैसे लोगों ने ही देश  को गुलाम बनाया है। अब तू नहीं बचेगा। ठहर मैं आता हूँ। पापी।’

 

अहमदशाह ने अपने सैनिकों को किला तोड़ने का हुक्म दिया। सैनिकों को तो जैसे इसी बात का इन्तजार था। हाथी और घोड़े भी खुश  हो गए। वे भी दरवाजा तोड़ने के लिए कब से तैयार थे। देश भक्तों के साथ रहकर वे भी तो देश भक्त हो चुके थे। सब किले के दरवाजे की ओर बढ़ चले। पर गद्दार राजा के गद्दार भाई ने देश भक्त अहमदशाह पर गोली चला दी। गोली अहमदशाह को जा लगी। राजा और उसका भाई विश्वासघाती निकले। देश भक्तों के खिलाफ उनका षड़यंत्र काम कर गया। पर मरते मरते भी अहमदशाह की ज़बान पर देश  का नाम था। आज़ादी का नारा था। अंग्रेजों के खिलाफ नफरत थी। गद्दारों के लिए अफ़सोस और गुस्सा था।

 

परी ने आकर उसे अपनी गोद में ले लिया। कहा ‘तू हारकर भी जीत गया है अहमदशाह । तू मर नहीं शहीद हो रहा है। देख उधर - कितने देश भक्त तेरा जय जयकार कर रहे हैं। आज़ादी की लड़ाई के लिए कसम खा रहे हैं। वे सब बहादुर और समझदार अहमदशाह हो गए हैं। तू अफसोस मत कर।’

 

परी की बात सुन कर अहमदशाह का चेहरा एकदम शांत हो गया। उसकी आँखें मुंदती चली गई। और ‘गुलामी पाप है’ बुदबुदाते हुए हमेशा  के लिए मुंद गई।

 

परी आज तक कभी नहीं रोई थी। उसने आज भी अपने आँसू बाहर नहीं आने दिए।

 

 


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