लू लू बड़ा हो गया

लू लू बड़ा हो गया

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लू लू की कई आदतें अजीब थीं। एक तो यही कि जन्मदिन बीतते ही उस अगले जन्मदिन की ललक सताने लगती। वह माँ से उदास होकर पूछता- “माँ अब मेरा जन्मदिन एक साल बाद आएगा न?" माँ कहती- “लू लू अभी तो एक दिन भी नहीं हुआ तेरा जन्मदिन बीते। तू है कि अगले जन्मदिन के लिए उदास हो गया।" "पर माँ सोहन का जन्मदिन तो 10 दिन के बाद ही आने वाला है। मेरा तो एक साल बाद आएगा!" -रुआंसा होकर लू लू ने कहा। माँ ने समझाने की कोशिश की- "लू लू 10 दिन बाद आने वाला सोहन का जन्मदिन भी तो पूरे एक साल बाद आएगा।" पर लू लू संतुष्ट नहीं हुआ। वह औरों के जन्मदिन ही गिनाता रहा जो जल्दी ही आने वाले थे। माँ हार कर चुप हो गई। बोली- “अपने उपहार तो देख ले।" "हाँ, हाँ माँ।" - कह कर लू लू उपहारों में खो गया। माँ को लगा चलो कुछ देर को अगले जन्मदिन वाली उसकी चीं चीं से तो छुटकारा मिला।

 

लेकिन तभी वह बोल पड़ा- "माँ देखो तो। बबलू की माँ ने कैसा सस्ता सा पेंन्सिल बॉक्स दिया है। मुझे नहीं चाहिए यह। पहले पता चलता तो मैं उन्हें थैंक्स भी नहीं देता। लौटा ही देता यह उपहार।" माँ ने समझाया- “देखो लू लू यह जन्मदिन का उपहार है बेटे। उपहार उपहार होता है, सस्ता-मंहगा नहीं। कुछ दिया ही है न बबलू की माँ ने। कितने प्यार से दिया है। सब उपहार अच्छे होते हैं बेटे। उपहार के पीछे छिपे प्यार को देखो।" पर लू लू को माँ की बात समझ आए तब न। उसे तो अपनी ही बात ठीक लग रही थी। उसकी माँ ने तो उसे कितना मंहगा उपहार दिलाया है। माँ को खीज़ तो आई,  पर लू लू को बच्चा समझ उसे छिपा लिया। बार बार प्यार से समझाया। लू लू ने मज़े मज़े से सारे उपहार देख लिए। यह क्या? वह फिर बेचैन हो उठा।

 

वह उन उपहारों को भूल कर और उपहारों के बारे में सोचने लगा। जो वस्तुएं उसे नहीं मिली थीं उनके लिए बेचैन हो गया। जब नहीं रहा गया तो माँ से कहा- “माँ मुझे वह उपहार तो मिला  ही नहीं।" माँ ने कहा- “ये सब तो मिले हैं न? पहले इनका मज़ा तो ले ले।" "पर माँ, मुझे तो वही उपहार चाहिए था।" लू लू ने मचलकर कहा। माँ ने समझाया- “वह भी मिल जाएगा। तुम्हारे अगले जन्मदिन पर हम ही दिला देंगे।" पर लू लू आसानी से कहां मानने वाला था। छोटी-छोटी बातों को भी सिर पर उठाने की उसकी आदत जो थी। पाँव पटक कर बोला - “लेकिन मुझे तो वह इसी जन्मदिन पर चाहिए था। जाओ, मैं आपसे बात नहीं करूंगा।" माँ को झुंझलाहट तो बहुत हुई। पर वह वैसी माँ नहीं थी जो दो चपत लगा देती। वह तो प्यार से समझाना अच्छा और ठीक मानती थी। बोली- “देखो लू लू, जो हो गया वह तो हो गया न। तुम्हारा जन्मदिन भी बीत गया। जो उपहार आने थे आ गए। अब नए उपहार के लिए तो तुम्हें अगले जन्मदिन का इंतज़ार करना होगा न?" लू लू को बात तो कुछ कुछ समझ में आ रही थी लेकिन बोला- “तभी माँ मुझे जन्मदिन का एक साल बाद आना अच्छा नहीं लगता। अब एक साल तक मैं कैसे इंतज़ार करूं?"  सुनकर माँ को हँसी आ गई। बोली- “मेरे छुटकू बुद्धुराम, जैसे पिछले जन्मदिन से इस जन्मदिन तक इंतज़ार किया वैसे ही।"

 

अभी यह बात खत्म भी नहीं हुई थी कि लू लू के पेट में एक प्रश्न कूदने लगा। नहीं रहा गया तो पूछा- “माँ लोग उपहार क्यों देते हैं?" माँ ने सरल सा उत्तर दिया- “ताकि तुम्हें अच्छा लगे।" कुछ क्षण चुप रहकर लू लू ने फिर पूछा - “पर माँ उनको क्या मिलता है?" "खुशी, जो देता है उसे भी खुशी मिलती है लू लू। तुम्हें खुश देखकर उनकी भी खुशी बढ़ जाती है।" "अच्छा माँ, पर मुझे तो बस लेने में ही मज़ा आता है।" - लू लू ने थोड़ा परेशान होकर कहा।" तू जब बड़ा होगा न तब समझेगा देने का मज़ा।" - माँ ने कहा। माँ थक गई थी। लू लू चुप तो हो गया पर सोचने लगा- “मैं बड़ा कब होऊंगा।"

 

वह जल्दी ही भूल गया। फिर से अपने उपहार टटोलने लगा। उपहारों को बार बार देखने में कितना मज़ा आता है न? उपहारों में उसे एक ’पिग्गीबैंक" भी मिला था। माँ ने उसे बताया- “इसे हिन्दी में ‘गुल्लक’ कहते हैं। तुम्हें जो जेबखर्ची मिलती है उसमें से कुछ रुपए-पैंसे  इसमें डाल कर बचा सकते हो। वे सब तुम्हारे ही होंगे।" लू लू को माँ की बात बहुत अच्छी लगी। बोला- “माँ! माँ! मैं तो हर दिन इसमें पैंसे डालूंगा। "क्यों नहीं, क्यों नहीं!" - माँ ने खुश होकर कहा। साथ ही यह भी कहा- “जब तुम्हारे पास काफी पैसे हो जाएंगे तो तुम बड़ों की तरह अपनी मर्जी से कोई अच्छी सी वस्तु भी खरीद सकते हो। हमारे साथ बाज़ार चलकर। " माँ की बात सुनकर लू लू को बहुत बहुत अच्छा लगा था। कितना कितना वह बता नहीं सकता।

 

दिन बीतते गए। माँ ने देखा कि लू लू पैसे बचाने में पूरी तरह लग गया था। उसका "पिग्गी बैंक" भरता जा रहा था। वह अपने "पिग्गी बैंक" यानि गुल्लक को बहुत सम्भाल कर रखता था। उससे बड़ा प्यार करता था। किसी का उसे छूना तक उसे अच्छा नहीं लगता था। कई महीने बीत गए।

 

पर अपने आने वाले जन्मदिन की बात वह कभी नहीं भूला। "पिग्गी बैंक" से कम प्यारा जो नहीं था। कभी-कभी माँ से पूछ  ही लेता - “माँ अब और कितने दिन रह गए मेरा जन्मदिन आने में?" माँ गिन कर बता देती। लू लू चुप हो जाता। मन ही मन  अच्छे-अच्छे उपहार मिलने की खुशी में खो जाता।

 

लू लू के घर में एक सेविका भी आती थी। बर्तन मांजने और झाड़ू-पोचा करने। माँ के कहने पर वह उसे ’आंटी" कहता था। एक दिन उसके साथ एक बच्चा भी आया। लू लू से थोड़ा ही छोटा। वह सेविका का बेटा था। पता नहीं क्या मज़बूरी रही होगी जो उसे साथ ले आई। उसे बाहर आंगन में ही बैठा दिया था। लू लू बाहर गया तो बच्चे को देखा। बच्चा खुश हो गया। लू लू को भी अच्छा लगा। थोड़ी ही देर में दोनों हिल-मिल गए। लू लू ने पूछा- “खेलोगे, मेरे पास बहुत खिलौने हैं।" बच्चा झट तैयार हो गया। लू लू उसे अन्दर अपने कमरे में ले आया। इतने सारे नए-नए खिलौने देख कर बच्चा तो चौंक ही गया। उसने बताया कि उसके  पास तो बस दो ही नए खिलौंने हैं। सेविका ने अपने बेटे को अन्दर कमरे में देखा तो उसे डांटा। बोली- “तू अन्दर क्यों आया?" लू लू को कुछ समझ नहीं आया कि आंटी क्यों डांट रही थी। तभी लू लू की माँ ने आकर सेविका से कहा- “बच्चा अन्दर आ गया तो क्या हुआ। क्यों डांट रही है? जब तक काम खत्म नहीं हो जाता खेलने दे इसे।" सेविका चुप हो गई। लू लू को माँ का डांटना अच्छा लगा। उसे तो खुद आंटी की बात पर गुस्सा आ रहा था। माँ ने जब उसके साथ साथ बच्चे को भी चॉकलेट दी तो उसे और भी अच्छा लगा।

 

बातों बातों में सेविका ने माँ को बताया कि आज  उसके बच्चे का जन्मदिन है। लू लू को भी पता चल गया। माँ ने बच्चे को प्यार किया। उपहार में कुछ कपड़े और खिलौने भी दिए। बच्चा खुश हो गया। लू लू भी बहुत खुश हो गया। लू लू ने तो हैप्पी बर्थ डे भी बोला। तभी लू लू को पता नहीं क्या सूझा। उसने कहा- “माँ क्या मैं भी एक उपहार दे दूं?" माँ ने खुश होकर कहा- “हाँ! हाँ! क्यों नहीं। यह तो बहुत अच्छी बात है।" वह उठा और अलमारी खोलकर उपहार ले आया और बच्चे को दे दिया। बच्चा तो और भी ज्यादा खुश हो गया। उपहार देखकर लू लू की माँ और सेविका दोनों ही चौंक गए थे। बच्चे की माँ ने तो लू लू को कोई और उपहार देने को भी कहा। पर लू लू ने कहा- “नहीं आंटी, मैं यही उपहार दूंगा।" और माँ की और देखते हुए बोला- "माँ! अब तो मैं  बड़ा हो गया न?"

 

माँ ने तो लू लू को चूम ही लिया और प्यार से गले लगा लिया। और कहा- “हाँ, मेरा लू लू तो बहुत बड़ा हो गया। अपने अगले जन्मदिन से पहले ही।"

 

 लू लू को सचमुच बड़ा होने का मज़ा आ रहा था और देने का भी। जानते हो लू लू ने उपहार में क्या दिया था। अरे भई  रुपयों-पैसों से भरा अपना ’पिग्गी बैंक’ यानि गुल्लक।

 

 

 

 


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