वापसी पर

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हालांकि श्रीवास्तवा ने मुझे बता दिया था कि मणि आज कल दिल्ली में ही है लेकिन मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि उससे अब मिला भी जा सकता है। दस साल पहले की वह मणि कैसी हो गयी होगी यह प्रश्न मन में उठा जरूर था लेकिन बिना कोई समाधान ढूंढे ही। अब मैं अधिक से अधिक इतना भर याद रख सकता हूं कि मणि मेरी पहली पत्नी थी और अब नहीं है - बल्कि अब किसी और की है, शायद मिस्टर बत्रा या बंसल की।

 

उस दिन अचानक ही श्रीवास्तवा के यहां उससे मुलाकात हो गयी थी। कुछ देर तो समझ में ही नहीं आया कि मुझे अच्छा लगना चाहिए या बुरा। फिर भी वातावरण में कुछ दबा-दबा सा महसूस जरूर होने लगा था और मुझे खुद ब-खुद अपने फालतू होने का एहसास होने लगा था। यह कमजोरी मुझमें आज से नहीं, बहुत पहले से है। स्कूल के दिनों में जब अतुल से कुट्टी हो गयी थी तो जिन दोस्तों में वह बैठता वहां प्रायः मैं नहीं जाता था - वर्ना मुझे घनघोर चुप्पी के दायरों में बन्द होकर आकाश और जमीन के बीच अनेक आंख रेखाएं खींचने के सिवाय कुछ नहीं सूझता। और इस तरह अकेलेपन का एहसास मुझमें मेरे फालतू होने का विचार बुरी तरह भर देता। आज भी मैं कहां बदला हूं। फिर भी औपचारिकतावश ‘हैलो’ हो गयी थी। मेरे प्रष्न के उत्तर में मणि ने अपने पति की काफी प्रषंसा की थी। और मैंने इसे हिन्दू धर्म के संस्कार मान लिए थे यद्यपि मेरे पास इसके कोई ठोस आधार नहीं थे। श्रीवास्तवा ने भी बताया था कि इससे पहले मणि अपने पति के साथ भी उनके घर आ चुकी है। और इसका पति जो कई साल विदेषों में रह चुका है, बहुत ही उदार और खुले दिमाग का आदमी है। तुम नहीं जानते षायद कि मणि तुम्हारे बारे में उससे बेझिझक बातें कर सकती है। कई मुद्दों पर उसने सराहा भी है। मैंने कनखियों से देखा कि मणि ने अपने बाव्ड बालों में उंगलियां घुमानी षुरू कर दी थीं और पहले से अधिक इतमीनान से बैठ गयी थी। उसका चेहरा एक खास किस्म से तन-सा गया था। जबकि मिसेज श्रीवास्तवा बच्चे के रोने की आवाज सुनकर बेड-रूम की ओर चली गयी थी और श्रीवास्तवा किसी चीज से अपने दांत कुरेदने लगा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि उस समय, मुझ पर, सचमुच ही कोई विषेश प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। मणि के प्रति इतना उदासीन भी हो सकता हूं - यह मुझे उसी दिन लगा था। दरअसल, इसी वजह से मुझे उसके पति के अच्छे या बुरे होने में कोई खास दिलचस्पी भी नहीं हो रही थी। यूं मणि ने ही घर छोड़ते समय कहा था कभी - ‘दोस्त तो हम हमेषा ही रह सकते हैं तुम चाहो तो। कुछ न कर पाने की स्थिति में मैंने ‘धर्मयुग’ का अंक अपनी ओर खींच लिया था और खींचकर ‘भविष्य’ पढ़ने लगा था। यह मेरी आदत में षामिल है जिसे बहुत से दोस्तों ने कई बार टोका भी है। खुद मणि कहा करती थी कि चार आदमियों में बैठकर किसी अखबार या मैग्जीन में डूब जाना दूसरों का अपमान होता है। अचानक ही् शरीर में एक सरसराहट-सी हुई और मैंने ‘धर्मयुग’ मेज पर रख दिया था। मणि ने हालांकि इस समय कुछ नहीं कहा था।

 

‘कभी हमारे घर आइये - मेरे पति आपका स्वागत करेंगे - मणि के इस वाक्य से मैं एकदम चैंक गया था। श्रीवास्तवा ने भी लगभग साथ ही साथ कह दिया था - ‘हां! हां! जरूर मिलना - ही इज ए नाइस मेन।’ श्रीवास्तवा की यही आदत मुझे बुरी लगती है। पता नहीं लोग एक-आध मुलाकात में ही कैसे किसी के संबंध में धारणा बना लेते हैं। श्रीवास्तवा का बच्चा तो बस किसी एक का पक्ष ले लेता है और फिर उसे ही ‘डिट्टो’ करता रहता है। हरामी! मैंने मणि की ओर देखा। मेरी आंखों से उभरे प्रष्न की अभिव्यक्ति से पहले ही उसने जैसे दोहराया था - वे सचमुच स्वागत करेंगे आपका - एक अतिथि या दोस्त की तरह। मैंने सब बताया है उनसे आपके बारे में। वे सचमुच ‘संकीर्ण’ नहीं है। मुझे लगा था कि ‘संकीर्ण’ शब्द का प्रयोग मणि ने जानबूझ कर किया था। यही एक आरोप उसकी मम्मी ने और उसकी वजह से ही खुद मणि ने भी मुझ पर तब लगाया था जब वह मुझसे अलग हुई थी। लेकिन इस व्यंग से मैं तिलमिलाया नहीं। मैं खुद नहीं जानता क्यों ? षायद समय का इतना बड़ा अन्तराल व्यक्ति को बदल देता है - या खुद व्यक्ति को बदलना आ जाता है या अपना होने के बाद जब व्यक्ति अपना कुछ नहीं रह जाता तो उसकी कठोर बातों की भी उपेक्षा कर लेने की षक्ति स्वयं ही उभर आती है। इसीलिए शायद, मैं मणि की बात पर मुस्कुरा कर ही रह गया था। इससे ज्यादा दखल देना मुझे अच्छा भी नहीं लगा। शब्द तो मैं ऐसे में बहुत ही कम बोल पाता हूं - यही सोचकर कि कहीं किसी के व्यक्तिगत जीवन में अनाधिकार प्रवेश न कर जाऊं। दरअसल मैं खुद अपने जीवन में, किसी दूसरे का दखल, अपनी इच्छा के विरूद्ध कभी बर्दाश्त नहीं करता। यूं भी मुझे किसी से ‘ना सुनना बहुत खलता है। इसीलिए मैं खुद ही इस बारे में बहुत सचेत होकर चलने की कोशिश करता हूँ। वर्ना केवल मुस्कुराने के अतिरिक्त मैं यह भी कह सकता था - ‘मणि एक बार सचमुच ही बुलाकर तो देखो। तभी कोई निर्णय लिया जा सकता है। सिद्धान्तों या दूसरों के मामलों में उदार होना एक बात है, व्यवहार में होना अलग। अभी तक तुम्हारे पति ने मुझे देखा नहीं है - मेरी ‘फिजिकल ऐक्जिसटेंस’ उनके दिमाग में अभी घर नहीं कर पायी है। और शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम कि आज अचानक श्रीवास्तवा के यहां तुम्हारी मुझसे भेंट भी हो सकती है - पुरूष को मैं जानता हूं - दरअसल जितना उदार होने की वो डीगे मार सकता है..... अपने मामलों में उससे कहीं ज्यादा संकीर्ण होता है। कोई मजबूरी ही उसे उदार बना दे तो बात अलग है। तब भी कभी-कभी वह अभिनय ही करता है। मौका मिलते ही उसके नाखून खुद-ब-खुद निकल आते हैं। वर्ना ऐसा कभी न हुआ होता कि चरित्र की सारी पूंजी औरत के नाम कर पुरू्ष खुद खुला घूमता रहता। मैंने बहुत से ऐसे लोग देखे हैं जो ‘पुरुष’’ का हाथ लगते ही औरत को ही चरित्रहीन कह देते हैं। तुम नहीं जानती मणि, इसकी वजह औरत की वह शारीरिक सीमा रही है जिसकी वजह से वह ‘मां’ भी बन जाती है - यानी पुरूष की तरह वह स्वतंत्र नहीं है.... वह अभिव्यक्त हो जाती है। लेकिन यकीन मानो जिस दिन औरत भी षारीरिक रूप से पुरष की तरह स्वतंत्र हो जाएगी या ‘गर्भ-धारण’ को गुनाह समझना बंद कर देगी उस दिन वह पुरूष के एकाधिकार को तोड़ कर उसके बराबर खड़ी हो जाएगी। मैं नहीं जानता क्यों एक शरीरिक प्रक्रिया को चरित्र की दृश्टि से इतना-इतना महत्व दिया गया है। तुम नहीं देख रही क्या मणि, आजकल बहुत से कारणों से पुरूष का वह एकाधिकार टूट रहा है। मुझे तो लगता है कि किसी के प्रति इससे बड़ा ‘अविश्वास’ और क्या हो सकता है दूसरा व्यक्ति उसकी जिन्दगी के हर क्षण पर, अपने लिए महज पुरुष होने की वजह से छूट रखते हुए, सैंसर की तरह बैठ जाए। तुमने भी देखा होगा कि औरतों को - खास तौर पर जवान औरतों को, अकेले तक नहीं जाने दिया जाता। आत्मविश्वास की कमी का इससे बड़ा और क्या कारण हो सकता है। मैं तो मानता हूं मणि कि औरत में वह तेज होता है जिसकी वजह से, उसकी बिना इच्छा के, उसे कोई छू तक नहीं सकता। यूं कमजोर तो एक पुरूष भी दूसरे पुरूष की तुलना में हो ही सकता है। मैं नहीं जानता तुम कितनी ठीक हो -शायद तुम्हारे पति उदार हों ही। लेकिन यदि तुम्हारे पति जानते कि आज मैं तुम्हें मिल भी सकता हूं तो क्या तब भी वह तुम्हें अकेले आने देते। कभी-कभी ‘पोजेस’ करने की प्रवृत्ति भी आदमी को कितना अंधा बना देती है। वह पूरी चालाकियों के साथ बन्धनों का जाल बुनता चला जाता है। अपने प्रति अविश्वास के इतने बड़े वृत्त में जीते हुए भी इसकी पहचान कर लेना कोई आसान काम नहीं होता। क्या सचमुच तुम भी अपने पति से मेरी तरह कह सकती हो कि तुम मुझसे बेहद प्यार करती रही हो - इतना-इतना कि कभी अलग होने की सोच भी नहीं सकते थे। जरा-सा व्यवधान आते ही कांप जाया करते थे और तुम सिमिट आती थी मुझमें। याद करो मणि प्रेम के उन भावुक क्षणों को जब तुम कहा करती थी - ‘कुछ भी हो, कहीं भी रहूं -प्यार हमेशा तुम्हारे ही लिए रहेगा।’ हां, मणि अपने से अलग किसी दूसरे की सत्ता को स्वीकार लेना इतना आसान नहीं होता। हम हर हाल में इसी कोशिश में रहते हैं कि दूसरों से अलग और श्रेष्ठ दिखें प्रायः ईर्श्यावश और ऐसे में सिर्फ ऊपरी दिखावा होता है - दम्भ, वास्तविक साधना से प्राप्त किया हुआ लक्ष्य नहीं क्यों ? और मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पति इसके ‘अपवाद’ हैं।

 

मुझे मालूम है कि यह सब मैं कह भी देता तो भी मणि मुझसे सहमति न रखती क्योंकि साफ नजर आ रहा था कि उस समय वह अपने पति को हर हाल उन सभी गुणों से मंडित कर देना चाहती थी जो एक पुरूष को देवता बना सकते हैं। हो सकता है उसका वह पुरूष ‘देवता’ ही हो।

 

लेकिन श्रीवास्तवा कब पीछा छोड़ने वाला था। वह जानता है कि मैं इतनी जल्दी हार मान जाने वाला व्यक्ति नहीं हूं। उसने भांप लिया था कि मैं, मुस्कुरा कर, प्रसंग ही खत्म कर देने की ताक में था। सच पूछें तो बात सही भी थी। मैं चाह रहा था कि जल्दी से जल्दी उठ कर चलूं। मणि को मैं कह नहीं सकता - यूं वह भी मिसेज श्रीवास्तवा को दो बार कह चुकी थी कि आज उसे जाना चाहिए - क्योंकि घर पर उसके पति उसका इन्तजार कर रहे होंगे। लेकिन श्रीवास्तवा और मिसेज श्रीवास्तवा, दोनों ही इस ‘मूड़’ में नहीं थे और इसीलिए वे किसी न किसी प्रसंग को छेड़कर रोकने में सफल होते जा रहे थे। इस बार भी श्रीवास्तवा ही बोला - यार, छोड़ो अब यह सब। मणि और तुम्हारे अलग-अलग रास्ते हो चुके हैं - और मैं देख रहा हूं - तुम दोनों ही इस तथ्य को स्वीकार भी कर चुके हो - लेकिन मणि को, जहां तक मैं सोच सकता हूं, तुम्हारे साहित्य से तो चिड़ नहीं ही होगी। षी वाज युवर फैन। क्यों मणि ?

 

मणि ने ‘लीची’ का छिलका उतारते हुए एक विषेश मुद्रा में जवाब दिया था - ‘व्यक्ति से खास रिश्ता टूटने की वजह से मैं उसके अन्य पक्षों, मसलन साहित्य से भी विमुख हो जाऊं, ऐसी मूर्ख तो आप मुझे नहीं ही मानेंगे। यू नो, आई हैव बीन ए स्टूडेन्ट आव लिटरेचर। व्यक्तिगत दुनिया और साहित्यिक दुनिया में जरूर फर्क तो रहता ही है न?’

 

मैंने फिर अपने को यह कहने से रोक लिया था कि मणि साहित्यकार ही जानता है कि अपने साहित्य में बहुत बड़ा अंश वह अपनी जिन्दगी से ही काट कर रखता है बषर्ते वह साहित्य का ही सृजन करे। लेकिन चुपचाप श्रीवास्तवा के पैकेट से सिगरेट निकाल कर सुलगा ली थी। श्रीवास्तवा ने धूर्त सी हंसी हंसते हुए कहा था - ‘तो हो जाए यार एक दो तीखी कविताएं?’

 

‘लेकिन, कविता तो मुझे याद नहीं रहती.... और इस समय कविता सुनाने का मन भी नहीं है।’

 

‘अरे छोड़ो भी - मन-वन क्या होता है। इतना नाम कमाया है तूने - कोई घास खोद कर तो नहीं।... अच्छा चल वह कहानी ही सुना दे -- ‘घूमा हुआ दायरा’ - विचित्र कहानी है भई। तीन साल पहले छपी थी तो पढ़ी थी। तभी से भूल नहीं सका हूं। एक ही चरित्र में कितनी सम्भावनाएं खोज निकाली हैं तुमने? मेरे पास कब से उसकी एक ‘टाइप्ड’ प्रति पड़ी है - अभी लाता हूं।

 

और मेरे मना करते रहने के बावजूद श्रीवास्तवा थोड़ी ही देर में दूसरे कमरे से मेरी कहानी ढूंढ लाया था। अपने सामने पड़ी हुई कहानी मुझे सचमुच अपनी कृति नहीं लग रही थी। भावुक क्षणों में लिखी गयी उस कहानी को इस समय में बिल्कुल सुनाने को तैयार नहीं था और वह भी मणि के सामने। मैंने जोर देकर कहा था - ‘श्रीवास्तवा तुम बेकार जिद न करो..... आज मैं कुछ नहीं सुनाने का। और अब मुझे जाने की इजाजत दे।’

 

श्रीवास्तवा थोड़ी देर को भौंचक्का-सा रह गया था। लेकिन जल्दी ही सम्भल भी गया और अपना पुराना वाक्य दोहरा दिया था - ‘तुम आदमी नहीं, घनचक्कर ही हो। तुम्हारा कोई भरोसा नहीं कि कब किसके गले लग जाओ और कब किसे गालियां बकने लगो। अपने को साहित्यकार समझते हो और भावुक अनपढ़ों की तरह एक जरा-सी स्थिति का ठीक तरह से मुकाबला नहीं कर सकते। बी प्रेक्टिकल, मैन। तुम मणि की वजह से ही कहानी नहीं सुना रहे न? मैं बताऊं क्यों ? क्योंकि तुम मणि के प्रति उदासीन हो बल्कि उसके प्रति एक ‘अव्यक्त घृणा’ समेटे हुए। और तुम इसे स्वीकार नहीं करना चाहते। तुम अपने साहित्य में लिख सकते हो कि ‘परिस्थितियां’ बहुत कुछ करा देती हैं किन्तु जिन्दगी में तुमने कभी परिस्थितियों के ‘रोल’ को नहीं समझा। तुमने हमेशा आदमियों को ही दोश दिया है। अब तुम अपने आपको भावुक नहीं मानते जो सरासर झूठ है। भावुकता रोने-पीटने को ही नहीं कहते - भावुकता में इन्सान किसी के इन्सान होने को भी अस्वीकार कर सकता है - सही और सहज को भी झुठलाने का प्रयत्न करने लगता है। तुम ’’

 

‘मिस्टर श्रीवास्तव’ मणि ने बीच में ही उसे रोकना चाहा था जबकि मुझे उससे यह सब सुनना कहीं न कहीं अच्छा ही लग रहा था। लेकिन श्रीवास्तव बिना मणि के टोकने की परवाह किए बोलता रहा था - ‘मुझे बोलने दो, मणि। जब यह तुमसे बेहद प्यार करता था तब भी उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था - कम से कम तुमसे झगड़ा कर लेने के बाद और अब जब यह तुमसे ‘विमुख’ है तब भी असलियत स्वीकार नहीं करेगा। पक्का ‘जिद्दी’ है। अपने ही द्वारा निर्मित वृत्त में जीने वाला व्यक्ति - कैसे साहित्य में ‘बाहर’ आ जाता है - यह मेरे लिए शोध का विषय हो चुका है - और इसके लिए बहुत सम्भव है कि मुझे फिर से ‘पी-एच.डी.’ करनी पड़े।

 

सचमुच, इस बार मुझे हँसी आ गयी थी। वातावरण कुछ हल्का-सा हो आया था। मैं नहीं जानता श्रीवास्तवा ने किस हद तक पहचाना है मुझे। कभी-कभी आदमी चाहता भी नहीं कि वह अपनी पूरी पहचान से वाकिफ़ ही हो। फिर भी मैंने कहा था - ‘कहानी फिर कभी सुन लेना श्रीवास्तवा। और फिर तुमने और भाभी ने तो यह पढ़ी ही हुई है। रही मणिजी की बात तो मुझे उन्हें यह कहानी पढ़वाने में क्या ऐतराज हो सकता है बषर्ते उन्हें यह जबरदस्ती न लगे तो। ऐसा नहीं हो सकता कि हम उन्हें यह ‘प्रतिलिपि’ दे दें ये स्वयं पढ़ लेंगी।’

 

‘हां-हां, यह ठीक रहेगा। इस बहाने मैं अपने पति को भी यह ‘कहानी’ पढ़वा दूंगी। ही इज ए ग्रेट मेन। ‘आर्ट’ की बहुत समझ रखते हैं।’ मणि ने षायद वातावरण को हल्का ही बने रहने की इच्छा से कह दिया था।

 

मुझे फिर हंसी आयी थी कि यह मणि कितनी ‘कांसस’ है अपने पति के बारे में। शायद ही कोई बात हो जिसमें यह अपने पति को न घसीट लेती हो। पति को पढवाएंगी - पचा पाएंगे पति? लेकिन दुनिया में सभी पुरूष एक जैसे तो नहीं होते। और इनके पति तो विदेषों में रहे हैं। सुना है, विदेषों में रह कर व्यक्ति काफी खुले दिमाग का हो जाता है। हो सकता है मणि का पति भी वैसा ही हो। इसीलिए बस इतना भर ही कहा था - ‘पति को पढ़वाने के बाद कहानी की प्रति लौटा देंगी तो अच्छा रहेगा। कभी संकलन छपवाया तो अलग से ‘टाइप’ नहीं करवानी पड़ेगी। और हां अपनी और अपने पति की प्रतिक्रिया भी देंगी तो स्वागत करूंगा। हो सके तो।’’

 

‘‘ओह श्योर। पढने के बाद हम कहानी को लौटा देंगे - प्रतिक्रिया के साथ।’’ मणि ने निश्चित रूप से गर्व की सी भाशा के साथ यह वाक्य कहा था।

 

श्रीवास्तवा समझ गया कि वह अपनी योजना में असफल हो चुकी है - सौ मुंह लटकाकर बैठ गया था। इस बार मेरे चलने के लिए किए गए आग्रह पर भी उसने रूकने के लिए जोर नहीं दिया। मैं चलने के लिए खड़ा हो चुका था। केवल औपचारिकतावश मणि से पूछ ही लिया था - ‘मणिजी, आप चाहें तो, कार में आपके घर के आसपास छोड़ दूं ? यूं आपका घर तो नजदीक ही है।’

 

‘नहीं-नहीं। थैंक्स। मैं चली जाऊंगी.... हां, इसका मतलब यह नहीं निकालना कि आपके साथ बैठकर जाने में मुझे किसी की मनाही है। मेरा अपना व्यक्तित्व सुरक्षित है। मेरे पति.....

 

वाक्य को बिना पूरा सुने ही मैंने हाथ जोड़ दिए थे और सीढ़ियां उतर आया था। उतर कर थोड़ी राहत मिली थी। मन में आया जरूर था कि एक बार तो इसके पति से मिलकर देखूंगा ही.... लेकिन? तुरन्त ही दूसरा ख्याल आ खड़ा हुआ था कि यदि उसके पति उस स्थिति को न पचा पाये तो? मणि को मैंने भी करीब से जाना हैं। अगर वह इन दस सालों में नहीं बदली है तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि बहुत मुमकिन है कि उसने पति के बारे में गलत धारणाएं बना रखी हों। यह बहुत जल्दी ही किसी पर विश्वास कर सकती है। और कोई भी उसे विश्वास में लेने का नाटक रचते हुए, उससे सब कुछ उगलवा सकता है। या उसे डराया भी जा सकता है। वह इतनी ‘बोल्ड’ नहीं है कि दूसरे के द्वारा ‘हनन’ को अस्वीकार कर सके हालांकि ‘बोल्ड’ होने का दावा उसने जरूर हमेशा किया है। वह दूसरों की चालाकियां भरी हरकतों को भी अपना हित समझती रही है। अगर एक बार उसके पति को भ्रम हो जाए कि मणि की जिन्दगी में मेरा प्रवेश हो रहा है तो हो सकता है उसका वह उदार पुरूष इतना-इतना संकीर्ण हो उठे कि वास्तविकता को पहचाने बिना ही अपनी खोल में सिमिट जाए और भयंकर सांप की तरह मणि की जिन्दगी को डस लें। तब तक क्या मणि किसी भी तरह उस सांप को कुचलने में सचमुच अपने को समक्ष बना सकी होगी। नहीं, ‘मणि’ को इस प्रकार डसा जाना मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकूंगा।.... लेकिन क्या हक है मुझे कि मैं एक अपरिचित व्यक्ति के बारे में, उसके करीब के आदमी द्वारा बनायी गयी धारणाओं को खण्डित भी करूं। अच्छा ही है यदि उसका पति संकीर्ण नहीं है तो।

 

मैं चुपचाप घर चला आया था। हालांकि मुझे लगता रहा था कि मैं यह कहना भूल गया हूं कि मणि कभी हमारे घर आओ - हो सके तो अपने पति को लेकर भी, मेरी पत्नी आपका स्वागत करेगी। और मैं सचमुच कह सकता हूं कि मेरी पत्नी एकदम संकीर्ण नहीं है। शायद।






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