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Vicky Gupta

Romance Drama

5.0  

Vicky Gupta

Romance Drama

मडुआडीह एक्सप्रेस

मडुआडीह एक्सप्रेस

13 mins
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आज पोस्ट ग्रेजुएशन की परीक्षा के समाप्त होने के साथ-साथ दिल्ली में आए पूरे 5 बरस हो चुके थे। अब मन नहीं लगता था इसकी भागती दौड़ती व्यस्त दिनचर्या में। इसी ऊब का नतीजा था कि पिछले कई दिनों से शांति की तलाश कर रहा था। और इसी शांति की तलाश में मैं ं कल लौट रहा था, अपने शहर बनारस। दिल्ली की व्यस्त दिनचर्या के बिल्कुल विपरीत धीरे-धीरे घटित होना बनारस के स्वभाव में था। बनारस कभी किसी को अपनाने से इंकार नहीं करता, जो वहां जाता है वहीं का बनकर रह जाता है। आस्था और प्राचीनता के मिश्रण से तैयार इस शहर का सौंदर्य अद्भुत प्रतीत होता था। गंगा नदी से उठती शुष्क हवाएँ इसके वातावरण में इत्र बिखेर देती थी। प्रत्येक शाम गंगा तट पर आयोजित होने वाली गंगा आरती की रौशनी शहर की तमाम रौशनियों को फीका कर देती थी। पूरे बनारस में बिछा संकड़ी गलियों का जाल इसके स्वरूप को ख़ास आकार प्रदान करता था। इन सभी बातों से हटकर एक बात थी जो बनारस को और ख़ास बनाती थी, वो थे यहाँ के लोग, उनकी संस्कृति। जिसने इतने वर्षों तक भी बनारस को बनारस बनाए रखा था।

बनारस की यादें जहाँ में ताजा होते ही वहां लौटने की उत्सुकता और भी प्रबल हो गई थी। ये उत्सुकता इतनी प्रबल थी कि मैं ट्रेन के आने से 3 घंटे पहले ही नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया था। इतनी प्रबल उत्सुकता के बीच 3 घंटो का इंतजार मेरे लिए 3 दिन के इंतज़ार जैसा था। मैं कभी अपनी नज़रों को पटरियों की ओर दौड़ाता तो कभी निस्तब्ध होकर प्लेटफॉर्म पर होने वाली अनाउंसमेंट को सुनता। इसी बेचैनी के बीच एक अनाउंसमेंट ने उस बेचैनी को थामने का काम किया, वो थी,“गाडी संख्या 12582, मडुआडीह एक्सप्रेस जो नई दिल्ली से चलकर मडुआडीह जाएगी अपने निर्धारित समय से प्लेटफॉर्म नं. 6 पर आ रही है।” इतना सुनते ही मेरी नजर पटरियों की ओर दौड़ने लगी, तभी एक ट्रेन धीमी रफ्तार से प्लेटफॉर्म की ओर बढ़ती हुई दिखाई दी। थोड़ी दूरी कम हुई तो यह स्पष्ट हो गया था की यह वही ट्रेन थी जिसका इंतजार पिछले 3 घंटो से कर रहा था, ‛मडुआडीह एक्सप्रेस’। मगर इसकी रफ्तार इतनी धीमी थी मानो यह भी बनारस की की दिनचर्या से प्रभावित हो। अंततः इतने लंबे इंतजार के बाद जब ट्रेन प्लेटफॉर्म पर पहुंची तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। मैं बिना कोई समय गवाएं तुरंत अपने सामान के साथ अपने सीट पर जाकर बैठ गया। कुछ वक्त बाद जब ट्रेन खुली तो बस जहन में यही ख्याल चल रहा था, दिल्ली में 5 वर्ष बिताने के साथ जिंदगी के एक और सफल अध्याय की समाप्ति हुई और अब बारी थी जिंदगी के एक और अध्याय को गढ़ने की।

जो शांति मुझे चाहिए थी शायद उसकी शुरुआत ट्रेन से ही हो गई थी। मेरे आसपास की सभी सीटें खाली थी। मुझे लगा ट्रेन 11 बजे रात की थी शायद इसीलिए ज्यादा लोगों ने इसमें टिकट न करवाया हो। ट्रेन के खालीपन को मात्र एक इत्तेफाक़ समझ कर मैंने खिड़कियों को खोल दिया और अपने पैरों को सामने वाली सीट पर टिकाकर चांदनी रात को निहारने लगा। और सोचने लगा कि इस रात के ढलते ही बनारस का सुकून मुझे अपनी आगोश में ले लेगा। यह सभी बातें ज़हन में चल ही रही थी कि ट्रेन कुछ पलों के लिए थम सी गई। खिड़की से जब बाहर झांककर देखा तो गाजियाबाद स्टेशन का बोर्ड दिखाई दिया। मैं उसे नज़रअंदाज़ करता हुआ एक बार फिर अपने बनारस के ख्यालों में मशगूल हो गया। कुछ समय बाद जब ट्रेन ने एक बार फिर रफ्तार भरी तो मुझे इसका एहसास तक नहीं हुआ, आखिर अपने ख्यालों में खोया हुआ जो था। ट्रेन के गाजियाबाद से खुलने के कुछ पलों के पश्चात् ही एक मधुर सी आवाज़ कानों में गूँज उठी। वह आवाज़ मेरे सभी ख्यालों पर हावी हो गया था। मैं तुरंत उस आवाज़ की दिशा तलाशने लगा, इसी बीच एक सुन्दर सी नवयुवती मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। चांदनी रात की भांति चमकता चेहरा, कपड़ों में आधुनिकता की छाप, बिल्कुल किसी परिपक्व नवयुवती की तरह लग रही थी। और जब उसने अपने स्वरपेटी से लफ्ज निकाला तो मुझे यह मुझे एहसास हुआ, यह वही मधुर सी आवाज़ थी जो मैंने कुछ देर पहले सुनी थी। उसने मेरी ओर त्योंरियों को चढ़ाते हुए कहा, “दिस इज़ माय सीट मिस्टर” मगर उसकी सुंदरता को निहारने में मैं इतना व्यस्त हो गया था कि यह सुन ही नही, पाया उसने क्या कहा। एक बार फिर उस नवयुवती ने अपनी बात को दोहराया मगर इस बार उसकी आवाज़ और भी कठोर हो गई थी, “दिस इज़ माय सीट मिस्टर पुट योर लेग्स डाउन” मैंने तुरंत अपने पैरों को सामने वाली सीट से खींच लिया। मेरी इस हड़बड़ाहट को देखकर शायद वो भी समझ गई थी कि मैं कहीं खोया हुआ था। लिहाजा मुझसे बिना कोई अगला लफ्ज बोले वह मेरे सामने वाले सीट पर बैठ गई। मैं मन ही मन काफी खुश था, भला होऊं भी क्यों ना, कौन नहीं चाहेगा इतने सुंदर साथी के साथ सफर बिताना? सफर की शुरुआत से जो बनारस का ख्याल मेरे मन में चल रहा था वो, अब कहीं खो सा गया था। भला इतनी सुंदर नवयुवती को छोड़ कहाँ अपने ऐसे ख्यालों में जाया जाए जो कल सुबह वास्तविकता की शक्ल लेने ही वाली थी। लिहाजा अपने सभी ख्यालो को भुला मैं उसे एकटक निहारता रहा, इस उम्मीद में शायद उसकी स्वरपेटी दोबारा खुलेगी और उसमें से मेरे लिए कुछ मधुर लफ्ज निकलेंगे। लेकिन उसने मुझे नज़रअंदाज़ करते हुए उसने अपने बैग से डायरी निकाली और उसमें अपने कोमल हाथों से कुछ लिखने में व्यस्त हो गई। मगर इतनी सुन्दर लड़की को देखकर मैं मानने वाला कहाँ था, आखिर दिल्ली में 5 वर्ष जो बिताए थे।

मैंने तुरंत पूछ दिया,“आपको डायरी लिखने का शौक है?”

उसने पूरे एटीट्यूड के साथ जवाब दिया,“जी हां! मगर मैं आपसे बात करने में बिल्कुल भी इच्छुक नहीं हूं”

उसका ऐसा जवाब सुनकर मैं शांत सा पड़ गया। अब उससे कुछ कहने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मैं अब इस आस में चुपचाप बैठ गया कि शायद वह मुझसे कुछ बोलेगी, और खुद को तसल्ली देने में जुट गया कि वह डायरी लिखने में व्यस्त थी और मेरा टोकना शायद उसे अच्छा ना लगा हो, इसीलिए गुस्सा हो गई हो। 

कुछ देर बाद उसने अपनी डायरी को बैग में रखते हुए मुझसे कहा,“अब आगे कुछ नहीं पूछोगे”

मैंने तुरंत जवाब दिया,“अभी तो तुमने बात करने से मना किया था”

उसने कहा,“मेरे एक बार मन करते ही तुम चुपचाप बैठ गए मतलब शरीफ घर से लगते हो।"

मैं ने कहा,“वो तो हूं मैं ! मगर पहले तुमने बात करने से मना क्यों किया था।"

उसने जवाब दिया,“दरअसल मैं गाजियाबाद से ट्रेन में चढ़ी हूं। ट्रेन काफी रात की थी, और ऊपर से जब मैं ट्रेन में चढ़ी तो खाली ट्रेन देखकर मैं डर गई, और जब तुम्हें यूं मेरी सीट पर पैर रखे देखा तो मुझे लगा कि तुम कोई बिगड़ैल लड़के हो। इसीलिए खुद को स्ट्रांग दिखने के लिए मैंने ऐसे बात करने से मना कर दिया।”

 उसकी यह वजह सुनकर मैं हँस पड़ा और तुरंत उसके सामने अपना परिचय रख दिया।

“मुझे लोग सुमित कहते है।और तुम्हें”

“मुझे लोग आरती बुलाते है”

अपने परिचय के साथ उसने अपने कोमल हाथ को मेरी ओर दोस्ती के लिए बढ़ दिया। मैं ने बिना किसी देरी के उसके इस दोस्ती के हाथ को थाम लिया। मेरे हाथ थामने के साथ ही उसके चेहरे का शिकन भी कम होने लगा था। अब वह खुद को मेरे साये में महफूज महसूस कर रही थी। उसके मिटते शिकन को देखते हुए मैं ने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया।

“तुम यहाँ गाजियाबाद में क्या करती हो?”

“फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही हूं ,और तुम?”

“मैं पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहा था।”

“मतलब! अब नहीं कर रहे हो?”

“नहीं। पोस्ट ग्रेजुएशन पूरी हो गई थी, ऊपर से दिल्ली की भागती-दौड़ती जिंदगी से ऊब गया था। इसीलिए वापस जा रहा हूं अपने शहर ‛बनारस’। और तुम कहाँ तक हमारे साथ हो?”

“चिंता मत करो मैं पूरे सफर में तुम्हारे साथ ही हूं”

“मतलब! तुम भी बनारस ही जा रही हो?”

“हाँ”

रात के तकरीबन 2 बज चुके थे मगर हम दोनों की आँखों में नींद कहां थी। दोनों आखिर एक दूसरे से बातें करने में पूरी तरह डूबे हुए जो थे। उसके बात करने के अंदाज़ से मैं समझ गया था कि उसे मेरा साथ पसंद आ रहा था। अब ऊपर वाले से एक ही कामना कर रहा था कि इस सफर का कभी अंत ना हो, बस यूं ही चलता रहे और हम दोनों एक दूसरे से कब्जी जुड़ा ही न हो। मगर इन कामनाओं के परे मन में यह भी ख्याल आया रहा था कि सुबह होते ही वह अपनी मंज़िल की ओर चली जाएगी और मैं अपने।

उसने अचानक टोका,“कहाँ खो गए?”

“कहीं नहीं ।”

“तुम अब बनारस हमेशा के लिए जा रहे हो?”

“हाँ। और तुम ”

“मैं तो कुछ महीनों में वापस लौट आउंगी। मगर बनारस में रहकर तुम क्या करोगे”

“वो नहीं जानता। मगर इतना ज़रूर जानता हूं, जिस शांति की तलाश में जा रहा हूं वह वहां ज़रूर मिलेगी।”

इसी बीच एक बार फिर ट्रेन की रफ्तार थमी। बाहर झाँकने पर ‛कानपुर सेन्ट्रल’ का बोर्ड दिखाई दिया। आरती प्लेटफॉर्म पर उतरने की ज़िद करने लगी। मैं भी उसे मन नहीं कर पाया। हम दोनों प्लेटफॉर्म पर उतर गए। चांदनी रात ढलने को थी और शायद हम दोनों का साथ भी। इसी बीच आरती मेरी नज़रों से ओझल हो गई, वह मुझे प्लेटफॉर्म पर दिखाई नहीं दे रही थी। मैं कुछ पलों के लिए मानो बेचैन सा हो गया था। एक मुलाकात में ही किसी के लिए इतनी बेचैनी शायद इससे पहले कभी नहीं हुई थी। इसी बीच ट्रेन ने खुलने की फुंफकार भर दी थी। मगर अभी भी आरती कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। अचानक पीछे से आरती के चिल्लाने की आवाज़ आई। वो प्लेटफॉर्म की सीढ़ियों से नीचे उतर रही थी। मैं ने उसकी ओर इशारा करते हुए उसे जल्दी उतरने को कहा। अब हम दोनों ट्रेन की ओर भाग रहे थे। कुछ पलों बाद मैंने कोच के गेट के सहारे खुद को ट्रेन के अंदर लाकर खड़ा कर दिया था। मगर आरती अभी भी ट्रेन का पीछा कर ही रही थी। मैंने अपना हाथ आरती की ओर बढ़ाया। मगर आरती के दोस्ती के हाथ के विपरीत मेरा यह हाथ हमसफर के लिए था। आरती मेरा हाथ थाम कर ट्रेन के भीतर आ गई थी।

मैं आरती के यूँ बिन बताए गायब हो जाने से गुस्सा था। मगर इस गुस्से को किस रिश्ते से जाहिर करूँ ये नहीं जानता था। इसी दुविधा के कारण मैं उससे कुछ नहीं कह पाया। और अपनी सीट पर खामोश सा सा बैठ गया। मेरी इस खामोशी ने उससे बहुत कुछ जाहिर कर दिया था। मेरी इस ख़ामोशी को नज़रअंदाज़ करते हुए उसने अपने बैग से डायरी निकली और उसमें शब्दों को उकेरने में व्यस्त हो गई। मानो मेरी इस खामोशी से उसे कुछ फर्क न पड़ता हो। जो कुछ हद तक सही भी था, एक अनजान व्यक्ति की खामोशी उसके लिए क्या मायने रखती थी।

“मगर मैं उसके लिए अभी भी अनजान था?”

उसके नज़रे फेर लेने से मानो मेरे सफर का सारा रस ख़त्म सा हो गया था। अब मैं इस सफर को विराम लगा देना चाहता था। मगर मडुआडीह पहुँचने में अभी भी 1 घंटे बाकी थे। बचे 1 घंटे मैं उसके सामने नहीं गुजार सकता था, जिसके कारण मैं अपनी सीट से उठकर। कोच के दरवाज़े के पास जाकर खड़ा हो गया। मन में बस एक ही बात चल रही थी, आखिर वह मुझसे एक सॉरी तक नहीं बोल सकती, इतना घमंड। कुछ देर बाद जब ट्रेन मडुआडीह पहुंच गई तो मैं सोच रहा था कि शायद अब वह कुछ बोलेगी। लेकिन जब मैं सीट पर पहुंच तब वह वहां नहीं थी, आसपास भी नहीं थी। उसका सामान भी वहां नहीं था, वह चली गई थी। शायद यह मेरी उससे पहली और आखिरी मुलाक़ात थी। मैं अपने बैग को पैक कर ही रहा था कि मुझे एक लिफाफा दिखाई दिया, उस पर मेरा नाम लिखा हुआ था। मैं समझ गया था वो छोड़ गई थी, मेरे लिए। मैने बिना कोई वक्त गवाएं उसे खोला। उसमे एक तस्वीर थी। यह कल रात की ही तस्वीर थी , कानपुर सेंट्रल की। इस तस्वीर में मैं उसको बेचैनी से तलाश रहा था। मैं समझ गया इसी तस्वीर को खींचने के लिए वो ग़ायब हो गई थी। तस्वीर के नीचे एक सन्देश भी था,


"सॉरी ! आई वांट टू कैप्चर दिस जरनी फॉर फॉरएवर बिकॉज़ आई नो वी नेवर मीट अगेन. योर केयर एंड लव आई ऑलवेज विल रिमेम्बर

योर आरती "


आज मुझे मेरी ख़ामोशी कचोट रही थी। दिल, दिमाग के अहम को धुत्कार रहा था। जिसने उस वक्त उससे मुझे बोलने से रोक दिया था।

ज़हन से इन सभी बातों को भुलाना आसान नहीं था। मगर फिर भी मैं ने एक कोशिश की और इन सब बातों को नकारता हुआ अपने बनारस के सफर को आगे बढ़ाया। मडुआडीह से बनारस के सफर में बनारस बदला नजर आया। जो स्वभाविक भी था। आधुनिकता की चमक बनारस पर भी अपनी छाप छोड़ने लगी थी, जिसके कारण काफी कुछ बदला हुआ था। थोड़ा आगे बढ़ा तो वह भुलभुलैया गलियों ने अब सड़को की शक्ल ले ली थी। प्राचीन घर भी अब कुछ कम ही नजर आ रहे थे। इतना देखने पर एक पल के लिए मैं यह मान बैठा था कि बनारस भी एक व्यस्त शहर में बदल चुका है। जहाँ के लोग खुद को व्यस्त दिखने में लगे हुए है। लेकिन शहर की भांति यहाँ गर्मी न थी। आज भी गंगा नदी से उठती शुष्क हवाएँ शहर में इत्र बिखेर रही थी। बस फिर क्या था मैं निकल पड़ा गंगा तट की ओर यह देखने की कहीं इस आधुनिकता ने उसे भी बदल तो नहीं दिया? जब गंगा तट पर पहुंचा तो कोई परिवर्तन नजर नहीं आया, गंगा की धारा आज भी अविरलता के साथ बह रही थी। मैं समझ गया भले ही आधुनिकता ने इसके स्वरूप को कितना भी क्यों न बदल दिया हो, इसके स्वभाव को बदलने में वह असफल ही रही थी। आज भी बनारस लोगों को अपनी ओर खींच रहा था। लोग भले ही खुद को व्यस्त दिखा रहे थे मगर उनके काम करने का ढंग आज भी धीमा ही था।

 मैं एक बार अपने घर जाना चाहता था । मगर बनारस ने मेरी गति को खुद की ही भांति धीमा बना दिया था। मैं गंगा तट से हिल ही नहीं पा रहा था।इसकी सुंदरता मुझे बांधे हुए थी।मैं वही बैठा रहा। बस गंगा के अविरल जल को निहारता रहा। मानो वह मुझे अपनी तरह आगे बढ़ने के लिए कह रही हो। शाम ढल चुकी थी, गंगा आरती की तैयारियां चल रही थी। मगर मेरी उसमे शामिल होने की कोई इच्छा नहीं थी। मैं यूँ ही घाट पर बैठा रहा। कभी ट्रेन के सफर को याद कर मुस्कुराता तो कभी गंगा के बढ़ते रहने के सन्देश को सच मानकर खुद को तसल्ली देने की कोशिश करता। इसी बीच पीछे से एक आवाज़ सुनाई दी। ये आवाज़ कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी, बिल्कुल आरती जैसी। मैं इस आवाज़ को केवल मन का एक वहम मानकर अपनी जगह पर बैठा रहा। कुछ पलों बाद वह आवाज़ दोबारा सुनाई दी, इस बार मैं खुद को रोक नहीं पाया और तुरंत पीछे मुड़ गया। मैं जिस आवाज़ को मन का वहम मान रहा था वो वास्तविकता थी। पीछे सीढ़ियों पर आरती ही थी, और वह मुझे ही आवाज़ लगा रही थी। उसे देखते ही मुझ मे एक नई ऊर्जा दौर पड़ी। मैं तुरंत उसकी ओर दौड़ा चला गया। पास पहुंचा तो उसकी आँखों में आँसू थे। मानो उसे भी मुझसे मिलने की इतनी ही बेचैनी थी ,जितनी की मुझे थी। मैंने तुरंत उसे अपने गले से लगा लिया। मेरा साथ एक बार फिर पाकर उसका चेहरा खिल उठा था। लेकिन मेरे मन में अभी भी एक सवाल उमड़ रहा था,“आखिर सुबह वह मुझे बिन बताए ट्रेन से क्यों चली गई?" मैंने उसके शांत होते ही अपना ये सवाल उसके सामने रख दिया। 

उसने कहा,“ कानपुर से तुम मुझ पर गुस्सा थे, मैं वहीं तुमसे माफी मांगना चाहती थी, मगर तुम्हारा गुस्सा देख मुझ मे हिम्मत नहीं हुई। लेकिन जब मुझे एहसास हुआ की तुम्हारा गुस्सा बेवजह है। तो मुझे भी गुस्सा आ गया और मैं तुम्हें बिन बताए ट्रेन से चली गई। लेकिन स्टेशन से बाहर निकलते ही जब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि तुम्हें यूं बिन बताए जाकर मैं गलत कर रही हूं तो मैं वापस ट्रेन के पास आई, लेकिन तब तक तुम वहां से जा चुके थे।”

आखिर बनारस के धीमेपन ने एक बार फिर हम दोनों को मिला दिया था। जो सफर दिल्ली से ‛मडुआडीह एक्सप्रेस’ में शुरू हुआ था वो इतनी सुन्दर मंज़िल पर जाकर समाप्त होगा, मैंने कभी सोचा तक नहीं था।



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