नये कपड़े...
नये कपड़े...
ज़िन्दगी वो नहीं होती हकीकत में जो हमें एयरकंडीशन कमरे के साथ थाली में परोसी हुई मिले। ज़िन्दगी वो है जो अपने क्रूर रूप में सड़क पर चहलकदमी करती इठलाती या कभी सहमी सी मिले। सुबह-सवेरे बाबा के दर्शन करके घर वापसी पर कैब के इंतज़ार में एक खुले आँगन में खड़ी हो गई, हाँ आँगन जहां तीन पाये की चौकी पर माँ-बेटी बैठी थी, चौकी के नीचे और बगल लोहे के रॉड पर पूरी गृहस्थी फैली थी, पास ही एक बच्ची इठला रही थी अपने नये कपड़े को पहन कर, उसे शायद किसी आदमकद आईने की तलाश थी जिसमें वो खुद को देख सके जो कि चौकी के इर्द-गिर्द कहीं नहीं था। चौकी पर बैठी हुई बच्ची के कपड़े बड़े मुश्किल से सेफ्टी पिन की पकड़ में उस बच्ची के तन को ढकने की कोशिश कर रहें थे। और मैं मुड़ के उनके आँगन में खड़ी थी, ऐसा उनकी आँखें कह रही थी। मेरी मजबूरी ये कि उस व्यस्त सड़क पर बस वो फुटपाथ का कोना ही था जहाँ मैं खड़ी हो सकती थी,उनकी गृहस्थी में बिन बुलाए मेहमान की तरह, कि तभी उस औरत ने अपने पास बैठी अपनी दूसरी बच्ची को एक चपत लगाते हुए कहा "मुँह का बना रही" देख उ लाई न कपड़ा नयका तू भी ले सकती थी लेकिन नहीं। तेको तो पढ़ना है उ NGO वाला लोग दिमाग खराब कर दिया है।
हर बार वही रट 'मम्मा क्या पहनें' सब पुराने कपड़े सुनते-सुनते कपड़े अब ज़रूरत की जगह बस दिखावे के लिए ही याद रहते ना हमसब को। लेकिन मैंने सुना उस बच्ची के मुँह से "न चाहिये हमको कपड़ा नयका" उ लेने खातिर छीः तू बोलेगी जा उ ठेला पे सुतजा, ठेलवा वाला देह नोचता है तब न ई कपड़ा......मैं स्तब्ध उस बच्ची की बातें सुन, चुप-चाप मन ही मन सोचती खुद से कहती कैब में कि "हे शिव" इसे पढ़ने देना। न पहनें भला ये नये कपड़े उतरन ही देना पर इस देह को किसी देह की ज़रुरत न बना देना। इसे उतरन ही ....