बेटी
बेटी
"मुबारक हो आपको बेटी हुई है," डॉक्टर की आवाज सुन कर रूही पलटी तो देखा सामने नर्स गोद में बच्ची को लिए खड़ी थी। सिरहाने पर बैठा राजेश बच्ची को बाहों में लेकर चूम लेता है। "देखो न इसकी आँखें तो बिल्कुल मुझ पर गयी हैं," कहते हुए वह बच्ची को रूही की गोद में दे देता है।
"अरे बिटिया को दादी से तो मिलवाओ," कहते हुए राजेश की माँ कमरे में दाखिल होती है। "भाग खुल गए हमारे तो, साक्षात् देवी का रूप लग रही है; किसी की बुरी नजर न लगे हमारी बिटिया को..."
अचानक कुछ टूटने की आवाज से रूही की नींद खुलती है, पास में ही बिस्तर पर बच्ची बिलख रही थी; शायद उसकी नींद भी खुल गई थी। वह उठकर ज्यों ही बिस्तर पर से अपना पाँव जमीन पर रखती है, कुछ चुभता हुआ महसूस करती है; नीचे फर्श पर काँच की शीशी टूट कर बिखरी हुई थी। इधर-उधर नजर दौड़ाती है, अस्पताल के उस कमरे में नन्ही-सी बच्ची और उसके अलावा और कोई नहीं था। वह लड़खड़ाती हुई बाहर निकलती है और नर्स से पूछती है, उसे पता चलता है कि उसके पति व सास दोनों थोड़ी देर बाद वापस आने की बात कह कर गए हैं।
इंतजार करते-करते सुबह से शाम हो गई पर अब तक उन दोनों का कोई पता नहीं था। रूही को अब तक समझ आ गया था कि उसके परिवार वाले बेटी होने की खबर जान उसे यहाँ बच्ची के साथ छोड़ कर जा चुके हैं। वह अब भी यही सोच रही थी कि जाने किस की बुरी नजर लग गई उसके परिवार को। उसे याद है कि सब कितने खुश थे नए मेहमान के स्वागत के लिए पर अब कोई उसकी तरफ़ देखना भी नहीं चाहते। कुछ ही क्षणों में कितना कुछ बदल गया था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि राजेश व उसके परिवार वालों की सोच भी ऐसी हो सकती है और उसके साथ ऐसा कर सकते हैं।
पैर में चुभे काँच की टीस उसे अब महसूस नहीं हो रही थी; अपनों के दिए जख्म उससे कहीं अधिक गहरी चोट दे गए थे। फर्श पर काँच की शीशी के टुकड़े अब भी बिखरे पड़े थे मानो उसे यकीन दिला रहे हों कि उसका सपना भी इन टुकड़ों की तरह बिखर चुका है..!