चाह मेरे मन की
चाह मेरे मन की
लगाकर पंख, चाहती हूँ उड़ना, पक्षियों संग गगन में
पहुंचू उन संग, दूर एक सुनहरे देश, मन को भाये जो
निसंकोच, करूँ मन की इच्छा पूरी, जहाँ पर
अलग हो जो, आज की इस दुनिया से बिलकुल
रोके ना, टोके ना कोई हर पल, मुझको
करूँ जो चाहे, जब चाहे खुलकर, बिना सोचे
नियमों के बंधन तोड़ कर, जी सकूँ आज़ादी से
मुस्कुराकर, आगे रखूँ, हर कदम अपने
दुःख की परछाईं हो ना कहीं, बस हो सुख चारों ओर
डरना ना पड़े किसी से कभी, झुके ना किसी के आगे
आश्वस्त होकर, चलूँ अकेले, धैर्य और हिम्मत से
साथ उनके, जो हैं प्रिय मुझे, मंज़िल की ओर अपनी
वेश - भूषा , धर्म – भाषा ना हो आधार, पहचान किसी की
धन - सम्पत्ति, खींचे ना लकीर कोई, बीच मनुष्यों के जहाँ
अपने कर्मों की अच्छाई, और करुणा की भावना ही हो
जो जोड़े मज़बूती से, सब को एक साथ एक माला में
हर एक बेटी का जीवन का हो मूल्य अनमोल
प्यार और प्रोत्साहन की चादर हो हरदम, चारों ओर उसके जहाँ पर
सांस ले जी भर के, शीतल पवन के झोंकों से टकराकर
प्रकृति के हर रंग और रस को, बसा ले, सदा अपने अंदर
क्या हो सकता है वास्तव में, यह चाह मेरे मन की पूरी ?
जी सकूँ वहां, मनुष्य और प्रकृति साथ हो सुरीले जहाँ
क्षमता से अपने हम, बीज बोये बदलाव के यदि आज
तो पंख लगाकर, साथ मेरे चलें एक सुनहरी देश में प्रसन्नता से..