सपनों का पौधा
सपनों का पौधा
सोच के बीज से अंकुरित एक सपनों का पौंधा,
जीवित था बस विश्वास की कुछ बूँदों पर,
उग रहा था स्नेहिल मिट्टी के आँचल में,
पल रहा था सूरज की किरणों के दामन में,
खिल रहे थे गुलाब उसमें कई आकांक्षाओं के,
महक रही थी फुलवारी खुशबू से अपेक्षाओं की,
पर एक तीव्र हवा के झोंके ने सब बिखेर दिया,
उन कोमल पंखुड़ियों को नींद से जगा दिया,
पत्तों को डाली से दूर ज़मीन पर बिछा दिया,
अलगाव के इस दर्द ने हरे भरे पौधे को सुखा दिया,
हालत देखकर उसकी माली ने उसके अस्तित्व को मिटा दिया,
फुलवारी की जान था कभी जो पौधा,
आज जड़ सहित एक कोने मे बेसूध पड़ा है,
वो विश्वास की बूँदें आज भी उसपर पड़ी,
उस स्नेहिल मिट्टी से आज भी उसका स्पर्श हुआ,
उन किरणों ने आज भी उसपर आशीष बरसाया ,
नहीं था तो बस आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का बोझ उसपर,
शायद इसीलिए वो सपनो का पौंधा अपने वजूद को खो बैठा है,
उजलों में पला बढ़ा, वो आज अंधेरों के दामन में टूटा है.