तकिये की खुशबू
तकिये की खुशबू
'पूरी रात मुझे नींद नहीं आई मेरा तकिया बदल गया था कल रात को आप से.. कैसे सो जाती हो आप इस तकिये पे न तो ये आराम दायक है और बड़ी अजीब बू आती रहती हैं इससें' सुबह उठते ही माँ से ये बात कही मैने। 'बेटा नींद तो मुझे भी नहीं आई इसके बिना,आदत सी लग गयी है इसकी' 'क्या माँ आप भी मतलब आप को इस पे नींद आ जाती है' ' हाँ बहुत गहरी' माँ मुस्कुराते हुए रसोई की तरफ चली गई। मैं इक नजर उस तकिये को देखता रहा फिर इक ख्याल आया ज़रा देखूँ ऐसा क्या है इस तकिये में खोला तो देखा पुराने कपड़े थे छोटे बच्चों के अजीब बू वाले.... 'माँ ये क्या कूड़ा करकट भर रखा हैं इसे मैं फेकने जा रहा हूँ।' 'बेटा वो कूड़ा करकट नहीं यादें हैं' मां दौड़ती हुई पास आई 'कैसी यादें मां ?' 'कुछ पुरानी यादें जिन्हे मैंने समेट कर आज भी जिंदा रखा हैं' 'कैसी यादें मां' बैठो बताती हूँ..।
ये सारे तुम्हारे ही कपड़े हैं बचपन के ये जो पीले कलर की लगोट है ये वो पहली लगोट है जो तुमने पहना था, ये जो काही कलर में पैंट-शर्ट हैं तुम्हारे नाना जी ने खरीदा था तुम्हारी बरही पे।और ये धानी रंग वाला तुम्हारे बाबा जी ने' 'ये हरे कलर वाला क्या है माँ ' 'ये ऊनी झबला हैं तुम्हारी नानी ने बीना था तुम्हारे लिए। जब तुम छ: महीने के थे और ये मोजा देख रहे हो कितना सुंदर हैं तुम्हारी दादी ने बीना था अपनी हाथों से तुम्हारे लिए।' 'माँ ये क्या है जैसे किसी बंदर का कपड़ा हो' माँ हँसते हुए ''ये बंदर टोपी वाली जाकिट है तुम्हारे पापा दिल्ली से लाये थे तुम्हारे लिए तुम्हारे पहले जनमदिन पर जब तुम इसे पहनते थे तो सब बड़ी तारीफ करते थे। इक बार तो राजू की दादी आई और तुमको इस में देखा और बोली 'आय हो दुलहिनि बड़ा सुंदर है लड़कवा तोहार न तौ फलानेप गा है और न तुहपर' हम ने कहा 'हाँ अम्मा इ अपने नानी का परा हैं.......' उसी रात तुम्हारी तबेत खराब हो गयी उल्टी- दस्त बंद ही न हो दवाई काम ही न करे तब तुम्हारी दादी ने कहा लागत हैं नजर लाग गा हैं। तब धोखई चाचा को बुला के लाई और उन्होंने झारा तब जाके आराम हुआ तब से नही पहनाया इसे फिर कभी तुमको और छुपा के रखा राजू की दादी की आँखों से तुमको।'
माँ के आँखों में इक अजीब खुशी झलक रही थी ये सब बताते हुए मैने कहाँ 'अच्छा ये बात है.. ये सब कपड़े साफ करके अल्मारी में डाल दो इसमें क्यों भर के रखा हैं' माँ मुस्कुराते हुए 'इसमें तुम्हारे बचपन की खुशबू है ये जो बू.आ रही हैं तुम्हें ये खुशबू है तुम्हारे जिस्म की मैं इसे मिटाना नही चाहती धुलकर ..जब तुम करीब नही रहते मेरे दिल्ली चले जाते हो तब ये अहसास नही होता कि तुम करीब नही हो। रात को जब मैं इसे बांहों में भर कर लेटती हूँ तो ऐसा एहसास होता हैं कि ये तकिया नहीं तुम ही हो एक-दो साल के जो मेरी बांहों में सो रहा हैं और मैं भी सो जाती हूँ ।' माँ की आँखों मेंं आँसू भर आये लेकिन गिर नही रहे थे और मेरे भी मैंने पूछा 'क्या आप की माँ भी कपडों की तकिया लगाती थी' 'मेरी माँ ही नही हमारे समय ये रुई से भरी तकियों का चलन नही था हर घर में लोग पुराने कपडे़ भर कर तकिया बनाते थे। लेकिन आज कल के लोग आराम के चक्कर में रूई के गुल-गुल तकिया लगाने लगे है' इतना कहकर माँ द्वार की तरफ निकल गयी और मैं भी घूमने चला गया। रात को लेटा तो गुल-गुल तकिया मेरे सर के नीचे था फिर भी मुझे नींद नही लग रही थी सोचता रहता कभी माँ के बारे में कभी नानी,दादी, बाबा,नाना के बारे में जो कि अब इस दुनिया में नहीं थें, जो माँ ने बताई वो सारी बातें तस्वीर के रुप में मेरी आँखो के सामने घूम रहे थे... मैने माँ को आवाज़ लगाई 'माँ नींद नहीं आ रही मुझे' 'आ मेरा तकिया ले जा नींद आ जाएगी' मैं माँ का तकिया लेकर आया.. दो मिनट बाद इक अजीब खुशी महसूस हुई अंदर से और मैं कब सो गया मुझे पता न चला।
दूसरे दिन माँ से कहा 'माँ मेरे लिए भी तकिया बना दो पुराने कपड़ों का जिसमें आप के और पापा के हो अगर कपड़े मिल जाए तो नाना-नानी,दादा-दादी के भी भर देना...' अब मैं वही तकिया लगाता हूँ आराम और नींद दोनों आता हैं दिल्ली में भी ।