सही अर्थ
सही अर्थ
जैमुल दीदी के आंचल में बंधा हुआ वह खुरमा जिसे वह मिलाद के दूसरे सुबह हम बच्चों के लिए लेकर आती थी और माँ का प्रत्येक दिन उसके लिए एक कप चाय का रखना, भुलाये नहीं भूलता। यह वो आंचल था जो मैली था, जिसमें अनगिनत जीवाणु थे परन्तु बेशूमार प्यार था इसलिए खुरमा में अद्भुत स्वाद था। उसके गुजरने के हफ़्तों तक माँ को इंतज़ार था उसके सुबह आने और चाय पीने का।
वह चांदनी रात, जब हम लाठी भांजते थे ताज़िये के पीछे-पीछे और बिना अर्थ जाने हम जोर-जोर से नारे लगाते थे 'कर्बला दूर है -जाना मंजूर है', 'नारे तक़दीर -अल्लाह हो अकबर', 'या इल्लाह है- इलल अल्लाह है'...इत्यादि। मुहर्रम के दिन ताजिये हमारे घर आता था। माँ आरती उतारती थी। बेलपत्र, धान, दूब एवं सिक्का चढाती थी। भुलाये नहीं भूलता।
हर रोज अहले सुबह पांच बजे, खलील चाचा का अपने छोटी सी दुकान के सामने नवाज़ पढ़ना और उसके पुराने रेडियो से वन्दे मातरम का साथ -साथ चलना एक संयोग नहींप्या बल्कि अटूट सम्बन्ध था। भुलाये नहीं भूलता।
आज बीस वर्षों के बाद जब मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि किसी ने हमारी नई पीढ़ी को नारों का और उसकी नई पीढ़ी को वन्दे मातरम का सही अर्थ समझा दिया है।
