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Swati Singh

Drama

3  

Swati Singh

Drama

प्यार

प्यार

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“अरे, अगर इन दोनों को अकेला छोड़ दो न, तो दोनों के बाल नहीं बचेंगे, इतना झगड़ते है दोनों इस उम्र में भी। तीन तीन बहुएं आ गईं पर बाप रे। स्वर्णा आगे बोली “जब मैं शादी होकर आई थी तो शुरू शुरू में अम्मा और पिता जी का झगड़ा देख मुझे बहुत आश्चर्य होता था कि इस उम्र में भी झगड़ा”


स्वर्णा की बात सुनकर उसकी देवरानियां ज़ोर ज़ोर से ठहाके मारकर हँसने लगीं। तभी स्वर्णा की माँ बोली कि “नहीं नहीं ऐसा मत बोलो स्वर्णा, अपने घर के बड़े बुजुर्गों के लिए इस तरह नहीं, गलत बात है” स्वर्णा की माँ आगे बोली “ठीक है सबका अपना अपना है“ स्वर्णा समझ गई कि माँ को उसकी बातें अच्छी नहीं लगीं। वह तुरन्त बात सुधारते हुए बोली “अम्मा ने पिता जी का हमेशा साथ दिया है। बहुत कठिन समय देखा है दोनों ने। अम्मा बताती है कि हमने सच में गरीबी देखी है। आज कोई विश्वास नहीं करेगा पर एक समय था जब हम दो जून की रोटी तक बड़ी मुश्किल से जुटा पाते थे। इतना बड़ा परिवार और पिता जी अकेले कमाने वाले थ“ स्वर्णा आगे बोली “पर एक बात तो है कि अम्मा, पिता जी के साथ हर घड़ी खड़ी रहीं” इतना सुन देवरानियां भी स्वर्णा का साथ देने लगीं क्योंकि ये तो सब जानते थे कि अम्मा पापा जी ने पहले खूब संघर्ष किया है; खूब दुख सहन किया है उन्होंने। अब उनके अच्छे दिन आए है।


मायके में सबसे मिलकर, चाय नाश्ता कर स्वर्णा अपनी देवरानियों के साथ अपने ससुराल वापस आ गई। वे सब जैसे ही घर पहुंची तो अम्मा ने कहा कि “पहले पिता जी का खाना लगा दो फिर दूसरा काम करना” तीनों देवरानी जेठानी एक दूसरे को देखने लगीं। स्वर्णा ने हाथ पैर धोकर सबसे पहले पिता जी को खाना दिया। पिता जी ने स्वर्णा से पूछा “अम्मा ने खाया” स्वर्णा ने कहा कि “जी बस उनकी थाली भी लग गई है”


अम्मा, पिता जी से न सिर्फ परिवार के लोगों को बल्कि अड़ोस पड़ोस के लोगों को भी बहुत लगाव था। दिनभर घर में खूब चहल पहल रहती। ये बात सही थी कि पिता जी अम्मा से बहुत कम बात करते थे पर जब वो न दिखें तो उनके बारे में पूछने लगते और जैसे ही अम्मा दिख जातीं तो अजीब सा व्यवहार करने लगते। कोई भी निर्णय लेना हो तो लड़कों को मध्यस्थ बनना ही पड़ता। दोनों का अकेले बैठना संभव ही नहीं था। उनके बीच क्या समस्या थी किसी को पता नहीं था क्योंकि दोनों अपनी तीनों बहुओं बेटों के साथ बहुत अधिक खुश थे। पर दोनों के बीच संवाद, नहीं जैसा था। फिर भी सब कुछ बराबर चल रहा था। उनके परिवार में खुशी खूब इतरा इतरा कर मंडराती थी। बस कभी कभी अम्मा को पेट दर्द की शिकयत हो जाती पर वो जल्दी ही ठीक भी हो जाती।


पर एक दिन तो अम्मा को पेट में अचानक बुरी तरह दर्द उठा पर। डॉ ने उन्हें तुरन्त मुंबई ले जाने की सलाह दी। पता चला कि अम्मा को आंत का कैंसर है। सब स्तब्ध थे। घर में शोक की लहर छा गई। तभी पिताजी ने अपने बेटों से कहा कि “माँ को मुंबई ले जाओ। पूरा इलाज कराओ। मैं बच्चों के साथ रहूंगा” बहू बेटों को यह बात समझ नहीं आई कि पिता जी अम्मा के साथ क्यों नहीं जा रहे है? पर किसी की उनसे यह कहने की हिम्मत नहीं थी कि आपको इस समय में तो कम से कम अम्मा के साथ होना चाहिए। मुंबई पहुंचने पर पता चला कि अम्मा की हालत ठीक नहीं है वो कुछ दिनों की ही मेहमान है। उनको आई सी यू में भर्ती करा दिया गया। वो चौदह दिन तक आई सी यू में भर्ती रहीं और आख़िर में वो इस जिंदगी से हारकर चलीं गईं। पर इस सब के बीच सबसे आश्चर्यजनक बात तो तब हुई जब बिल्कुल आख़िरी समय में भी पिता जी अम्मा के पास आई सी यू में नहीं गए। बहुओं, बेटों ने एक मर्यादा के अंदर उनको यह बात समझाने की कोशिश भी की कि “भले ही अम्मा को होश नहीं है पर फिर भी आपको कम से कम इस समय तो उनके पास होना ही चाहिए” पर पिताजी को यह बात समझ में नहीं आ रही थी और आखिर अम्मा आखिर चलीं गईं। इस बात के बाद से तो जैसे घर के सारे सदस्यों का नज़रिया पिता जी के लिए बदल ही गया था। खासतौर पर बहुएं पिताजी से काफी दिन तक नाराज़ रहीं। हालांकि कभी किसी ने अपना गुस्सा पिताजी को ज़ाहिर नहीं होने दिया पर सबके मन में एक खटास सी बनी रही। पिता जी पहले की तरह ही अपने नाती पोतों के बीच व्यस्त रहने लगे। पहले की तरह ही वे रात को खाना खाकर बाहर दीवान पर ही सो जाते और इस तरह धीरे धीरे ज़िन्दगी फिर एक बार जैसे तैसे पटरी में आ गई। एक नयी दिनचर्या फिर शुरु हो गई। हालांकि अम्मा का इस तरह से जाना और पिता जी का आखिरी समय उनके लिए इस तरह का व्यवहार, पिता जी के ऊपर बहुत बड़ा सवाल सा छोड़ गया था कि क्या एक पति इतना कठोर भी हो सकता है ? सब कुछ सामान्य होते हुए भी बहुत कुछ असामान्य सा था। कोई यह नहीं भांप पाया कि अम्मा का जाना पिता जी के लिए दुख की बात थी भी या नहीं। कभी कभी ऐसा लगता कि वो कुछ अनमने से है। पर कभी कुछ समझ में नहीं आता। कभी कभी वे कुछ बुदबुदाते से लगते। तो कभी कुछ लिखते रहते। पर किसी को ठीक तरह से कुछ समझ में नहीं आता। हालांकि वो भी सामान्य बनने की कोशिश करते और घर के बाकी सदस्य भी उन्हें उतना ही प्यार और सम्मान देते। बच्चों के लिए तो पिता जी जान छिड़कते थे और बच्चे भी अपने दादा के दीवाने थे। वे घंटों बच्चों के साथ खेलते। हाँ पर इधर कुछ दिनों से वे कुछ ज्यादा ही चुप चुप से थे। उनका ऐसा व्यवहार सबको खल रहा था। सब उनसे बार बार पूछते कि आखिर उनके मन में क्या चल रहा है, उन्हें बताना चाहिए। एक दिन अचानक उनको रात में घबराहट सी हुई। बेटों ने उन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया जहाँ पता चला कि उनको हृदयाघात हुआ है। बच्चे कुछ समझ पाते कि अचानक उनकी मृत्यु हो गई। उनका इस तरह अचानक चले जाना सबको बहुत बुरी तरह अखर गया था। घर में जैसे एक अजीब सा सूनापन छा गया था। हालांकि अम्मा का हल्ला पिताजी से ज्यादा था परन्तु पिताजी के जाने के बाद जो खालीपन था वो न सिर्फ बच्चों पर बल्कि बेटों पर भी गहरा असर छोड़ गया था। पूरे परिवार को दो तीन साल सम्हलने में लग गये और फिर पूरे तीन साल बाद घर में खुशी आई। स्वर्णा की बेटी की शादी होने जा रही थी। अम्मा पिता जी ने उसके लिए गहने बनवा कर कई दिन पहले से ही बैंक में रखवा दिए थे। आखिर उनकी पहली पोती की शादी जो थी। दोनों को पोती की शादी देखने का बड़ा मन था। पर नियति को कौन टाल सकता था। एक दिन तीनों बहुएं बेटे एक साथ बैंक जाकर अम्मा के गहने निकालकर घर ले आए। सब बैठकर गहने देख ही रहे थे कि उन्हें डब्बे में एक पत्र मिला जिसे पिता जी ने अपने बच्चों के नाम लिखा था। उन्होंने लिखा था कि “प्रिय बेटों और बेटियों मुझे पता है कि तुम सब मुझसे मन ही मन नफरत करने लगे थे जब मैं तुम्हारी अम्मा के साथ मुंबई नहीं गया। फिर मैं आई सी यू में भी तुम्हारी अम्मा के साथ नहीं रहा। बच्चों मैं तुम्हारी अम्मा को कभी दिल से प्यार कर ही नहीं पाया। मैंने उसे हमेशा एक उपयोग की वस्तु ही समझा और फिर जब तुम सब हमारी ज़िन्दगी में आते गए तो तुम्हारी माँ ने अपना पूरा ध्यान मुझसे हटाकर तुम सब में लगा लिया। मैं उसकी नफरत समझता था साथ ही मैंने कई बार महसूस किया था कि वो ऐसा करते समय भी खुश नहीं होती थी क्योंकि वह मुझसे बहुत प्यार करती थी। उसे ऐसा बर्ताव करने में दुख होता था। वह कभी किसी का दिल दुखा ही नहीं सकती थी, बहुत भोली थी वह। उसकी उपेक्षा करते हुए मुझे भी दिल से दुख होता था। पर समय के साथ साथ हमारे बीच इतनी दूरियां बढ़ गईं थीं जिन्हें मैं चाहकर भी कभी पाट नहीं पाया और कभी अपनी गलतियों का पछतावा उसके सामने कर ही नहीं पाया। सब कुछ होते हुए भी कभी कभी अपने आपको बहुत गरीब महसूस करता था। दरअसल परिवार की ज़िम्मेदारी निभाते निभाते जैसे हमारा रिश्ता तो कहीं खो सा गया था। हम साथ रहकर भी अलग हो गए थे और अलग रहकर भी कहीं साथ में थे। तुम्हारी अम्मा का कैंसर होना मेरे लिए बहुत बड़ी सजा थी। मुझे पता था कि वो नहीं बचेगी। मैं बहुत कुंठित महसूस करता था उसके इस तरह जाने के बाद। मैं उसे जीते जी कभी पति का प्यार नहीं दे पाया। मुझे माफ़ करना बच्चों परंतु आई सी यू में उसको इस हालात में विदा करने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मुझे माफ़ कर देना। एक आखिरी बात तुम्हारी अम्मा और मेरा पूरा आशीर्वाद तुम सब लोगों के साथ है इस बात से में पूरी तरह आश्वस्त हूं क्योंकि जब माँ को लेकर मैं मुंबई नहीं गया और आई सी यू में भी जब मैं साथ नहीं था तो उसके बाद तुम लोगों का गुस्सा देखकर मन ही मन मैं संतुष्ट और खुश था कि कम से कम तुम लोग मेरी तरह अपनी पत्नियों के लिए गैर ज़िम्मेदार नहीं हो। ज़िन्दगी बहुत छोटी होती है बच्चों। जो दे सको वो सब देना। बच्चों, पत्नी पूरे घर की आधार होती है। वो है तो घर घर है इस बात का हर पल ध्यान रखना। तुम सबको बहुत बहुत प्यार।


तुम्हारे पिताजी”


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