प्यार-दोस्ती और इज़हार
प्यार-दोस्ती और इज़हार
"ये ज़रूरी नहीं कि हम साथ है तो कोई चक्कर हो !
वो मेरी दोस्त हैं और में उसे बस अच्छा लगता हूँ..."
अली ज़रयुन का ये शेर मुझे याद दिलाता है, याद दिलाता हैं बीते कल की, वो राहुल ने कहा था ना कि, " प्यार दोस्ती हैं...अगर वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त नहीं बन सकती, तो मैं उससे कभी प्यार कर ही नहीं सकता… क्योंकि दोस्ती बिना तो प्यार होता ही नहीं ...सिंपल, प्यार दोस्ती है", कुछ कुछ होता हैं फ़िल्म का ये डायलॉग जब से सुना था तब से आज तक जहन में छपा हुआ है। शायद उसने भी यहीं सोचा होगा जब मुझे अपना दोस्त बनाया था, सबसे अच्छा दोस्त।
उसे हमारी दोस्ती पसंद थी और मुझे उसकी खुशी। लेकिन एकदिन कुछ ऐसा हुआ जिसके लिए मैं शायद तैयार नहीं था। स्कूल का आख़िरी दिन था, दूसरे दिन से गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो रही थी। हम रोज़ कि तरह उस दिन भी केंटीन के अपने कोने वाले टेबल पर बैठे थे। बाहर तेज धूप थी, सो मैं दो कोल्डड्रिंक्स लेकर आया। आज वह ज्यादा बोल नहीं रही थी, बस मुझे देखें जा रहीं थी। उसकी आँखों में रोज़ की तरह ढ़ेर सारी बातें नहीं थी, लेकिन कुछ तो था जो मेरी समझ से परे था। कुछ वक़्त के बाद मैंने खामोशी तोड़ते हुए हल्के मिज़ाज में कहा," क्या हुआ ?
आज इतने खोये खोये से क्यों हो !? कहीं किसीसे इश्क़ विश्क तो नहीं हो गया..?!" मेरे इस पी.जे. पर उसने जबर्दस्ती हँसने की कोशिश की लेकिन नाक़ाम! मुझे लगा बात कुछ गंभीर है, सो मैंने उसे पूछा कि सब ठीक तो हैं !? उसने मेरी आँखों में देखा, उसकी आँखें आज कुछ अलग अलग सी लग रही थी। उसकी आँखे ग़हरी होती जा रही थी हर बितते पल के साथ...। उसने हल्के से मेरे हाथों को अपने हाथों में थाम लिया। वह अब भी मेरी आँखों मे देख रही थी, मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उसने मेरे हाथों को पकड़कर कहा, "हाँ, कुछ हैं जो बहोत दिनों से मुझे परेशान किये जा रहा हैं, और आज वह हद से ज्यादा बढ़ चुका है। हम मिले, हम दोस्त बने, और इतने महीनों के बाद भी आज तक दोस्त हैं, एकदूसरे के हर राज़ शेर किए और ढ़ेर सारी मौज मस्ती भी की… और उसमें कुछ गलत भी नहीं, लेकिन मुझे… मुझे ऐसा लग रहा है कि कुछ है जो मुझे तुम्हें बता देना चाहिए इससे पहले कि वह मेरी जान लेले…।"
उसकी आवाज़ धीमी होती जा रही थी, वह कोई शांत समंदर सी नज़र आ रही थी। उसने मेरे हाथों पर अपना दबाव बढ़ाया और एक लंबी सांस लेकर कहा," मैं तुमसे प्यार करती हूं। हद से ज्यादा। पहली नज़र से लेकर आज तक, एक एक पल मैंने तुम्हें प्यार किया हैं, पता हैं कि ये अजीब है, मैंने तुम्हें कभी ये महसूस नहीं होने दिया लेकिन अब मुझसे यह दोस्ती का ढ़ोंग नहीं होता…,मुझे नहीं पता कि तुम इस वक़्त क्या सोच रहे हो, मुझे जो बताना था वह मैंने बता दिया अब सब तुम पर है...लेकिन कुछ भी कहने से पहले जान लेना कि तुम मेरा पहला और आख़री प्यार हो..." उसने एक और लंबी साँस ली और खुद को स्वस्थ किया। उसने आखिर में सच कहा था , उसे जो कहना था वह कह चुकी थी और अब "सब मुझ पर था"...
मै ये सुनकर जम गया, एक पल के लिए मुझे कुछ नहीं सूझा लेकिन दूसरे ही पल मेरा ध्यान उसके आखरी शब्दों पर गया कि ' अब सब तुम पर हैं …'।
क्या मतलब है इसका कि अब सब मुझपर हैं, इतने महीनों पुरानी दोस्ती की डोर मुझपर हैं ?! क्या कहूं में उसे !? अगर मेरी बातों को सुनकर इसने कुछ गलत क़दम उठा लिया तो ? इस नाज़ुक मोड़ पर उसे में अकेले छोड़ना भी नहीं चाहता था… तो अब क्या ? क्या में उसे झूठ बोलू ? नहीं, में उसके जज्बातों के साथ तो नहीं खेल सकता...। ऐसे हजारों विचारों के बाद मैंने उसकी और देखा, वह अब भी मेरे हाथ थामे हुए थी, उसने सर झुका लिया था और अपने तेजी से हिलते पैरों को देख रही थी। मैंने उसके हाथों को अपने हाथों से पकड़ा और बहोत धीमी आवाज़ में उसे कहा," हेय सुनो, मेरी तरफ देखो। " मैं उसे खोना नहीं चाहता था और नाही उससे झूठ बोलने का इरादा था, मेरा बदन ठंडा पड़ रहा था ये पल मेरी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल पल था, हाँ, सिर्फ तब तक के लिए…,
उसने मेरी तरफ देखा, मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था, कोई लफ़्ज नहीं, कोई गवाही नहीं, कोई बयान नहीं और नाही कोई दलील। वो कहते हैं ना कि जब होंठो को लफ्ज़ ना मिले तो आँखे हाल बया कर देती हैं… बस यहीं हुआ था उस वक्त, उसकी आँखें नम हो गई, साँसे भारी होने लगीं हाथ काँप रहे थे, वह खुदको संभाल नहीं पाई, पलकें झपकाने से पहले ही उसकी आँखें बहने लगी, मैंने उसे कभी इस हाल में नहीं देखा था, दूसरे ही पल वह उठी, अपना बैग लेकर भागते हुए बाहर चली गई...। मैं किसी पत्थर की मूरत सा वहां बैठा रहा, उस खाली कुर्सी को निहारते हुए जहाँ थोड़े समय पहले वह बैठी थी। उसका वो सफ़ेद रंग का दुपट्टा जिसे चहेरे पे बाँध कर वह अक्सर स्कूटी पे सवार होती थी वह कुर्सी के पास नीचे पड़ा था। मैंने उसे उठा लिया…पता नहीं क्यों पर हर पल जो हमने साथ बिताए थे वे एकसाथ याद आ रहे थे, मैंने वो दुपट्टा अपने पास रख लिया, सोचा था कि छुट्टियों के बाद जब वह वापस आएगी तो उसे दे दूंगा। लेकिन एसा नहीं हुआ, वह कभी नहीं लौटीं, मेरा भी कभी कोई कॉन्टेक्ट ना हो सका, कुछ ने कहाँ उसने स्कूल बदल दी, कुछ ने कहाँ वह दूसरे शहर चली गई...क्या सच था क्या झूठ मुझे आजतक नहीं मालूम।
मैंने कभी कोशिश भी नहीं की पता लगाने की। बस उसके जाने के बाद इतना हुआ कि, तब से मेरी कोई दोस्त नहीं हैं, शायद दिल ने कभी उसके अलावा किसी और के बारे में सोचा ही नहीं… मैं लड़कियों से दूर भागने लगा, उसके जाने के बाद मुझे उसके प्यार का एहसास हुआ था। उसकी एक एक याद मुझे पूरी ज़िन्दगी भर रुलाने को काफ़ी थी। मुझे भी आखिरकार इश्क़ हो गया था, सच्चा वाला, लेकिन मैंने बहोत देर करदी थी, वह जा चुकी थी, दूर...बहोत दूर। सुनने में आया था कि उसका कोई नया दोस्त भी बना था, जो उससे बहोत प्यार करता हैं और वो दोनों पढ़ाई खत्म होते ही सगाई करने वाले हैं, वह खुश थी उस नए दोस्त के साथ, बहोत खुश। मुझे और क्या चाहिए था !
उसके जाने के बाद उसके अलावा किसी और से इश्क़ नामुमकिन था। पता हैं मुझे की अब वह किसी भी हाल में मेरी नहीं हो सकती और मुझे उससे प्यार करने के लिए उसकी ज़रूरत भी नहीं रहीं क्योंकि आखिरकार उसी शख़्स ने अठारह साल बाद मुझसे एक फ़िल्म के जरिए कहाँ कि," एक तरफ़ा प्यार की ताकत ही कुछ और होती हैं… औरों के रिश्तों की तरह ये दो लोगों में नहीं बटती...मेरे प्यार पर सिर्फ मेरा हक़ हैं सिर्फ़ मेरा…"
मैं आबाद तो नहीं पर खुश होने की कोशिश कर लेता हूँ, अपनी हर ग़ज़ल में कहीं ना कहीं उसका ज़िक्र होता ही हैं, वो आज भी मेरा सबसे बड़ा राज़ हैं, जिसे मैंने खुद से भी छुपा रखा है। चलो मान लेते हैं कि ये कहानी कोई प्रेम कहानी नहीं मगर कहानी में प्रेम नहीं था ऐसा भी नहीं !
और हर प्रेम कहानी में ख़ुदा के दस्तख़त हो ये भी तो ज़रूरी नहीं, इस दुनिया में इश्क़ इतना भी मयस्सर नहीं कि हर रूह को तर कर सकें, आज भी देर रात तक उसके दुपट्टे को हाथ में लिए उससे बातें करता हूँ, और जब भी नींद आये उसीको सीने से लगा कर सो जाआख़िर में किसन भैया उर्फ़े "ग़ाफ़िल" का एक शेर साझा करना चाहूँगा हैं जिसे मैं हर पल जी रहा हूँ कि,
"अब तो सिगार भी जलाऊँ तो डर लगता हैं;
मेरे दिल की वादियों में बारुद बहुत है... "