पश्चात्ताप ?
पश्चात्ताप ?


स्टेशन का नाम पढ़ते ही शम्मी बाबू चौंक गए। एयरकंडीशंड कूपे में शांति थी, लेकिन शम्मी बाबू के भीतर यकायक झंझावात आ गया। टाइम मशीन ने उसे दस साल पुराने लाडनूं में पहुंचा दिया था। इस शहर से जुड़ी कई यादें थीं, लेकिन एक याद दिल का नासूर बन गई थी।
यादें कितनी अजीब होती हैं। कभी अकेले में चेहरे पर मुस्कान ला देती हैं, कभी मोबाइल खटकाने पर मजबूर करती हैं। कभी ब्रह्मांड के सुदूर कोने में पटक देती हैं, तो कभी दिल में टीस बनकर उभरती हैं। ऐसे लोग भी हैं, जो गुजरे लम्हों के साथ अतीत बन जाते हैं, पर यादों में जिंदा रहते हैं।
इन्हीं में एक थे जेठाभाई। शम्मी बाबू की यादों का अभिन्न अंग। लाडनूं यूनिवर्सिटी में ताऊ के नाम से मशहूर। अठारह के शम्मी बाबू और अस्सी के ताऊ की दांतकाटी मशहूर थी। सिगरेट की डिब्बी शम्मी बाबू की जेब में होती, तो माउथफ्रेशनर ताऊ की धोती में बंधी होती। यूनिवर्सिटी कैम्पस में हर कोई जानता था कि शम्मी बाबू कभी कोई गलती नहीं करते। अगर गलती से कुछ गलत हो गया तो ताऊ हैं ना!
शम्मी बाबू के पापा लाडनूं यूनिवर्सिटी के प्रो-वाइसचांसलर थे। जितनी इज्जत प्रोफेसर साहब की थी, उससे ज्यादा ख्याल उनके साहबजादे का रखा जाता। ख्याल रखने वालों में नम्बर वन थे – ताऊ। शम्मी बाबू की खुशामद करना यूनिवर्सिटी के हर शख्स का धर्म था और ताऊ के रहते कोई अपने धर्म से पतित नहीं हो सकता था।
प्रोफेसर साहब के दिल में भी ताऊ के लिए बड़ी इज्जत थी। वजह ताऊ की बुजुर्गियत भी हो सकती थी, योग गुरु होने का जलवा भी। बीकानेर के रहने वाले छह फीट चार इंच के ताऊ अपनी लम्बी-चौड़ी खेती-बाड़ी औलादों के हवाले कर यूनिवर्सिटी में ऑनरेरी योग शिक्षक थे।
ताऊ के लिए पापा का सम्मान शम्मी बाबू की हर समस्या का समाधान था। यूं तो पापा के पास शम्मी बाबू की कोई शिकायत पहुंचती ही न थी। गलती से पहुंच गई, तो क्या मजाल कि ताऊ के रहते शम्मी बाबू पर लगा इल्ज़ाम सही साबित हो जाए। ताऊ ही थे, जिनके कारण पापा की नजरों में अपने बेटे की छवि एक खुशमिज़ाज, मिलनसार, पढ़ाकू वगैरह-वगैरह थी।
ताऊ, शम्मी बाबू के ख़ास योग-व्यायाम गुरु भी तो थे। सुबह चार बजे शम्मी बाबू को जबरदस्ती उठाते और बालू के टीलों पर दौड़ाने ले जाते। खुद मिनटों में टीलों के पार खो जाते और शम्मी बाबू थक-हारकर बालू पर बैठ जाते। थोड़ी देर बाद ताऊ वापस लौटते और शम्मी बाबू को ललकारते।
“चल उठ। बूढ़ी ऊंटनी जैसा बैठ गया। प्रोफसर साब का नाम हंसाएगा के?”
जैसे-तैसे दौड़ खत्म होती और दोनों योग क्लास में पहुंचते। पैंतालीस मिनट का योगाभ्यास, पंद्रह मिनट का ब्रेक और फिर पापा के साथ नाश्ता।
शम्मी बाबू की दिनचर्या में एक और बात शुमार थी। नाश्ते के दौरान पापा को बताना कि दिनभर क्या करना है। और नाश्ता खत्म होते ही उन योजनाओं को हमेशा के लिए भूल जाना।
उस रोज योजना बनी, चुरु जाने की। शम्मी बाबू ने पापा के सामने ताऊ को खड़ा कर दिया। इजाज़त मिलनी ही थी। कुछ ही मिनटों में दोनों के ऊंट रेगिस्तानी टीलों पर हवा से बातें कर रहे थे।
ऊंटों की दौड़ में ताऊ पीछे छूट गए। गुमान में फूले शम्मी बाबू समझ न पाए कि ऊंटों के बीच ज़िंदगी बिताने वाले ताऊ दरअसल उन्हें फुसला रहे हैं।
खैर... चार घंटे के सफर के बाद दोनों चुरु पहुंचे। ताऊ ने शम्मी बाबू को कई लोगों से मिलवाया। प्रोफेसर साहब के साहबजादे की जो खातिरदारी हुई, कि पूछो मत। फिर खाट पर थोड़ा आराम, दोपहर ढलते ही सबको राम-राम।
वापसी के दौरान अचानक ताऊ ने अपने ऊंट की लगाम खींची।
‘बात सुण’। ‘बकरी गो दूध पियेगा के ?’
शम्मी बाबू को आश्चर्य हुआ कि इस बियावान में बकरी का दूध? कुछ पूछते, उससे पहले ताऊ की झिड़की मिली।
‘पीणी है के णी?’
हां में सिर हिलाने के सिवाय कोई चारा न था। ताऊ ने बाईं ओर ऊंट दौड़ा दिया। ताऊ के पीछे शम्मी बाबू भी हो लिये। बालू का टीला पार करते ही सामने बकरियों का झुंड था। साथ में 12-13 साल का एक चरवाहा था।
ताऊ ने ऊंट से छलांग लगाई, एक बकरी को पकड़ा और सीधे उसके थन में मुंह लगा दिया। शम्मी बाबू ने ताऊ की नकल उतारने की कोशिश की, लेकिन एक भी बकरी हाथ न लगी। आखिरकार चरवाहे ने ही मदद की और शम्मी बाबू ताऊ स्टाइल में चार बकरियों का थोड़ा-बहुत दूध पी सके।
अचानक शम्मी बाबू के जेहन में सवाल कौंधे। ये चरवाहा इस बियावान में कैसे पहुंचा? इसके साथ भेड़-बकरियां क्यों है? भेड़-बकरियां चराने की आड़ में चोरी-चकारी तो नहीं करता? टीले के पार इसके लुटेरे दोस्त-साथी तो नहीं हैं?
शम्मी बाबू ने लगभग हड़काने वाले अंदाज़ में एक साथ सारे सवाल दाग डाले।
चरवाहे पर शम्मी बाबू की बेरुखी का कोई असर नहीं पड़ा। उसने बताया कि चार साल से बारिश नहीं हुई है। खेती-बाड़ी खत्म हो गई है। भेड़-बकरियां खेजड़ी के पत्ते खाकर जिंदा हैं। उन्हें चराते-चराते वो अपने गांव से 200 मील दूर आ पहुंचा है।
शक का कोई इलाज नहीं होता। शम्मी बाबू का शक भी दूर नहीं हुआ? उस अनजाने शक का दिमाग से निकालना नामुमकिन था। लिहाजा शम्मी बाबू ने वहां से निकलने में ही अपनी भलाई समझी।
शम्मी बाबू ऊंट पर सवार होते, उससे पहले चरवाहे की आवाज आई।
‘साबजी’...‘साबजी। एक बकरी गो एक रिपया हिसाब सूं चार बकरियां गा चार रिपया दे देओ।’
शक को और मजबूती मिली।
‘तो ये चरवाहा मुझसे पैसे ऐंठना चाहता है।’
शम्मी बाबू को यकीन हो चला था कि ये चरवाहा किसी लुटेरा गिरोह का सदस्य है।
‘साबजी...’
फिर कानों में चरवाहे की पुकार पहुंची।
अब चरवाहे का उपाय करना ही था। शम्मी बाबू को लगा कि चरवाहे को सबक न सिखाया तो उन्हें लुटने से कोई नहीं बचा सकता था। बूढ़े ताऊ कितना बचा पाएंगे? इस लुटेरे को समझाना पड़ेगा कि मैं कमजोर नहीं हूं। अकेले चार-छह पर भारी हूं।
धाड़...
सोचते-सोचते शम्मी बाबू का हाथ चरवाहे के गाल पर पड़ा।
दुबला-पतला बच्चा, उम्र बमुश्किल 12-13 साल, चार पलटी खाकर दूर जा गिरा। गुस्से से नथुने फुलाए शम्मी बाबू को अपनी ओर बढ़ते देख चरवाहे ने हाथ जोड़ दिये।
‘साबजी माणे छोड़ द्यो। माणे मारो ना। मैं मर जाऊं’।
उसके होठों से खून रिसना शुरू हो चुका था।
‘दिमाग ठिकाने आ गया?’
मन ही मन सोचते शम्मी बाबू ने हिकारत के साथ चरवाहे को देखा और ऊंट पर सवार हो गए।
भौंचक्के ताऊ के पास शम्मी बाबू के पीछे आने के सिवाय कोई चारा न था।
चरवाहे की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। चार रुपये मांगे तो एक साहब ने पिटाई कर दी। फिर दूसरे साहब ने बिना मांगे उसके हाथ में बीस का नोट ठूंस दिया। कभी वो बीस का गुलाबी नोट और उसपर टपकी खून की लाल बूंद देखता, तो कभी नजरों से ओझल होते ऊटों को।
सफेद सूरज का रंग नारंगी हो चला था। चरवाहे की नजर ऊंटों के पैरों के निशान पर थी। उसने पैरों के निशान के सहारे आगे बढ़ने की ठान ली। जिन साहब ने झापड़ रसीद किया था, उनसे दो-चार होना ज़रूरी था। चरवाहे की हांक पर भेड़-बकरियां उसी ओर चल पड़ीं जिधर ऊंटों के पैरों के निशान जा रहे थे।
अगली सुबह नाश्ते की पांत बैठी ही थी, कि गेटकीपर तेजी से शम्मी बाबू के पास पहुंचा। कानों में उसकी फुसफुसाहट सुनकर शम्मी बाबू सन्न रह गए। जल्दी-जल्दी नाश्ता निपटाने लगे।
‘घणी खम्भा साबजी।’
पिछली गेट पर पहुंचते ही शम्मी बाबू को उसी चरवाहे की आवाज सुनाई पड़ी। खम्भे के साथ टिककर चरवाहे को बैठे देखा तो शम्मी बाबू के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगीं।
‘रातों-रात ये चरवाहा इतनी सारी भेड़-बकरियों के साथ यहां कैसे पहुंच गया? ये मेरे साथ क्या करना चाहता है? मैंने गलती कर दी। ताऊ को योगशाला से साथ ले आना चाहिए था। अब क्या करूं?’
कैम्पस में बदनामी का डर था तो भरोसा भी था कि कैम्पस में चरवाहा शम्मी बाबू का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। मन में एक किस्म का ख़ौफ़ भी था, जो उस भरोसे की नींव हिला रहा था।
इसे चार-पांच रुपये दे देता हूं।
शम्मी बाबू ने पैंट की जेब में हाथ डाला तो पर्स नदारद।
पर्स??? शायद कमरे में ही भूल आया।
तभी कानों में चरवाहे की आवाज़ पड़ी।
‘साबजी। थारो बटुओ।’
चरवाहे के एक हाथ में शम्मी बाबू का पर्स था और दूसरे में कॉलेज आइडेन्टिटी कार्ड।
‘यो कार्ड में लागेडी थारी फोटो सूं थारो ठाह लाग्यो।’
कब चरवाहे ने शम्मी के हाथों में पर्स और आई कार्ड थमाया और कब चलता बना, शम्मी को पता ही न चला।
‘घणी खम्भा साबजी।’
अभिवादन नहीं ये तीर था, जो शम्मी बाबू के दिल के पार हो गया था। शम्मी बाबू को लगा कि पैरों तले बालू खिसक रही है। वो गहरी खाई में गिरे जा रहे हैं। सूरज ठीक से उगा भी नहीं था, लेकिन उसकी तपिश बर्दाश्त के बाहर थी। शम्मी बाबू कुछ कहना चाहते थे, लेकिन पूरा जिस्म काठ हो चुका था। ज़ुबान ने दिल की बात मानने से साफ इंकार कर दिया।
ट्रेन जोधपुर की ओर सरपट भागे जा रही थी। एयरकंडीशंड कूपे में शांति छाई थी, लेकिन शम्मी बाबू के भीतर झंझावात बह रहा था। ज़ुबान बंद थी। हां... जोधपुर के कलक्टर की आंखें मौनसून को ज़रूर मात दे रही थीं।