Sonia Madaan

Drama

3.6  

Sonia Madaan

Drama

प्रेम पिता पुत्र का

प्रेम पिता पुत्र का

3 mins
969


"कितनी बार कहा है बाबूजी, मेरे साथ शहर चलो ! कब तक अपने आप को इस मिट्टी में यूं ही गंदा करते रहेंगे ? बस ! अब बहुत हो गया। सारी उम्र आपने इस जमीन पर इतनी मेहनत कर, मुझे पाल पोस कर पढ़ा लिखा कर आज इतना तो योग्य बना ही दिया है कि मैं आप सबका सहारा बन सकूं। चलिए इस बार मेरे साथ। छोड़ दीजिए गांव को। यहां अकेले रहते हैं, कोई देखने वाला नहीं और मुझे आपकी फिक्र भी होती है।"

"नहीं बेटा यह मिट्टी, यह गांव इसी में मेरी जान बसी है मैं यह गांव छोड़कर शहर में नहीं रह सकता। हां, तुम्हारे बिना यहां मन भी नहीं लगता पर तुम आ तो जाते हो हर महीने हमसे मिलने। तुम्हें तुम्हारे शहर का जीवन मुबारक। वैसे भी बेटा, शहर में घुटन होगी। तुम तो जानते हो मुझे खाली बैठने की आदत नहीं। अरे, यह थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी का काम करके मैं अपना मन लगा लेता हूं।"

"आप नहीं मानेंगे बाबू जी मुझे पता है। मां, तुम ही समझाओ।"

"ठीक ही तो कह रहे हैं तुम्हारे बाबूजी। हम गांव में रहने वाले, हमारा दिल कहां शहर में लगेगा। हम यहां खुश हैं बेटा। बस यही हमें आकर मिल जाया करो। हमारे लिए परेशान न हो।"

बस का ब्रेक लगते ही झटका लगने से अनुज की आंख खुल गई। खिड़की से बाहर झांका, सूरज डूबने वाला था। मन ही मन अनुज ने सोचा बस किसी तरह सूरज डूबने से पहले घर पहुंच जाऊं और बाबूजी को देख लूं, बहुत चिंता हो रही है। कहा था उन्हें कि मेरे साथ शहर में रह लो, यहां कौन ध्यान रखेगा ?

कल ही मां ने अचानक फोन करके अनुज को फौरन घर आने के लिए बुलाया- यह कहकर कि बाबूजी की तबीयत ठीक नहीं और तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं।

एक बार घड़ी की तरफ नजर दौड़ाई, अंदाजा लगाया घर पहुंचने में अभी एक घंटा लगेगा। 

बस मन ही मन हाथ जोड़कर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि सब ठीक हो, मन में घबराहट तो हो रही थी पर खुद ही अपने आप को तसल्ली भी दे रहा था।

2 साल हो गए अनुज को शहर में नौकरी करते हुए। पिताजी ने खेती-बाड़ी कर अनुज को पढ़ा लिखा कर शहर में नौकरी करने भेज दिया।

 सोचा कि हम खुद तो अभाव में रहे हैं पर अपने बेटे को खूब पढ़ायेंगे। कोई कमी ना छोड़ी अनुज की हर इच्छा पूरी करने में।

ऐसी ही तो होती है किसान की जिंदगी। दिन भर खेतों में मेहनत मजदूरी करने के बाद भी दो वक्त की रोटी ही नसीब होती है।

अनुज बचपन में बाबूजी के साथ खेतों में हाथ बंटाया करता था। उसे भी बहुत अच्छा लगता था। बीज डालना, खाद डालना, सिंचाई करना, फसल के पक कर तैयार होने का इंतजार करना। अनुज के मिट्टी में सने हाथों को देखकर बाबूजी कई बार सोचते अनुज को तो पढ़ा लिखा कर अफसर ही बनाएंगे। कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसे शहर भेजा और जल्द ही उसकी अच्छी नौकरी भी लग गई।

अपने शहर के बस स्टैंड का नाम सुनते ही अनुज के शरीर में जैसे बिजली सी फुर्ती आई। फौरन अपनी सीट से उठा और बस से उतरते ही अपने घर के लिए ऑटो किया।

घर पहुंचते ही बाबूजी की कमरे की तरफ दौड़ा, वह चारपाई पर लेटे शायद उसका ही इंतजार कर रहे थे। अनुज को देखते ही उनकी आंखों में एक चमक से आ गई। अनुज भी अपने बाबूजी से लिपट गया। गले लगते ही मानो पिता-पुत्र दोनों के शरीर में एक नई जान आ गई हो। मां भी इस विहंगम दृश्य को देख भावुक हो गई।


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