Ratna Kaul Bhardwaj

Drama

4.9  

Ratna Kaul Bhardwaj

Drama

पहचान बदलती गई

पहचान बदलती गई

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वह एक सम्पन्न परिवार में जन्मी थी। वह उस पीढ़ी की पहली संतान थी। वह बेटी थी। बहुत लाड मिला, गोदियों में झुलाया गया, लक्ष्मी का रूप माना गया। क्या दिन थे, माँ बाप के चेहरे खिले रहते थे। पहली संतान का सुख सारे परिवार के लिए बहुत ही सुखदाई था।

साल बीतते गए। कब वह पांच साल की हुई , पता ही नहीं चला। पूरा दिन वह चहकती - फुदकती रहती,  इतना प्यार दुलार मिला कि वह ज़िद्दी बनती गई, फिर भी घर वालों के प्यार - दुलार में कोई कमी नज़र नहीं आई। हर सदस्य की वह जान थी।

आज अचानक घर में ख़ुशी का माहौल सा था पर साथ में कुछ तनाव भी था। उसकी माँ किसी पीड़ा से परेशान थी। वह नादान कहाँ जानती थी कि घर में एक छोटा मेहमान आने वाला था। वे कह रहे थे माँ को अस्पताल लेकर जाना पड़ेगा। यह भाषा उसकी समझ से परे थी। वह तुनक कर बैठ गई, उसे माँ के पास बैठना था, उससे माँ की गोद चाहिए थी। वह माँ की पीड़ा से बिलकुल अनजान थी। सब समझाते रहे पर वह अपनी ज़िद्द कहाँ छोड़ने वाली थी। अक्सर यही तो हुआ करता था, वह ज़िद्द करती थी और सारा परिवार उसके आगे - पीछे चलता रहता था।

उसे किसी तरह से समझा - फुसला कर उसकी माँ को अस्पताल ले जाया गया। वह अपनी दादी की गोद में आधी सोई आधी जागी हुई थी कि अचानक फ़ोन की घंटी बज उठी। न जाने ऐसा क्या हुआ था सब ख़ुशी से नाच रहे थे। मिठाइयां बंटने लगी थी, सब एक दूसरे को गले लगा रहे थे। वह नादान, उसकी समझ से परे, यह सब देख रही थी। अचानक दादी ने उसे गोद से उतारा और दूसरे कमरे के पलंग पर पटक दिया और वह ज़ोर ज़ोर से रो रही थी पर यह क्या ! आज उसके रोने की आवाज़ पर किसी की कोई प्रतिक्रिया ही नहीं थी। किसी को उसकी आवाज़ सुनाई ही नहीं दे रही थी। अचानक दादी कमरे में आकर उसे चूमते हुई बोली, "अरे वाह, आलेले, आज गुड़िया के घर में छोटा भाई आ गया।" प्यार से गले लगाया पर उस प्यार की कशिश कुछ कम पड़ गई थी, कहीं छोटी सी दरार ने अपनी शक्ल दिखाई थी। क्यों आखिर आज ऐसा क्या हुआ था ? क्या उसकी  पहचान बदल गई थी ? आज उसकी पहचान प्यारी बेटी से, लक्ष्मी से, परी से, एक भाई की बहिन मे तब्दील हो गई थी।

माँ एक दिन के पश्चात घर आ गई। वह रोते भिलखते माँ के पास पहुँच गई और उनकी गोद मे बैठने की ज़िद्द पर अड़ गई पर माँ थोड़ी सी परेशानी की हालत मे उसे थोड़ा दूर बैठने को कह रही थी पर वह कहाँ मानती। ऊपर से वह नन्ही सी जान जिसको देखकर उसे बहुत गुस्सा आ रहा था, आता भी क्यों नहीं , उसकी गोद पर उसने कब्ज़ा जो कर लिया था और माँ उसको सीने से लगा कर दूध पिला रही थी। सब आकर उससे प्यार से पुचकार रहे थे , बड़ी नाज़ुकता से उससे छू रहे थे, उसकी परेशानी और व्याकुलता का अंदाज़ा किसी को भी नहीं था। 

वह रोती रही, बिलखती रही, बार -बार एक ही रट, " मुझे माँ की गोदी मे बैठना है।" वह अपनी ज़िद्द पर अड़ी हुई थी। पापा भी वहीँ पर खड़े थे और उसे प्यार से कुछ समझाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन वह अपनी नासमझी की वजह से कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। यह क्या ! पापा एक दम चिल्लाते हुई बोले, " चुप हो जा नहीं तो एक चांटा मारूंगा।" पर उसका रोना कहाँ बंद होना था।फिर अचानक, "तड़ाक !" उसका सर एकदम चकराया था।

पापा का लोहे जैसा हाथ उसके चेहरे पर अपना पूरा निशान छोड़ गया था। वह सहमी हुई दूर कोने में जा गिरी थी। उसकी आंखों से आँसूं निकल रहे थे। आज घर की हवा में परिवर्तन आया था। आज उसे चुप कराने कोई आगे नहीं आया था। न जाने सब कहाँ व्यस्त हो गए थे । माँ भी उस नन्हे से बच्चे को संभालने में लगी थी। आज उसकी आंखों और नाक का पानी एक हो रहा था पर किसी को इसकी परवाह ही नहीं थी। आज दादी की परी को दादी भी नहीं दिख रही थी। दिखती कैसे ! मेहमानों के स्वागत में बहुत ही व्यस्त थी।

रोते- रोते में वहीँ एक कुर्सी पर लुढ़क कर बैठ गई थी। उसे भूख भी सत्ता रही थी पर आज उसकी भूख के बारे में सब शायद भूल चुके थे। अचानक सब बदला बदला सा लग रहा था। सब अटपटा सा लग रहा था । समझ नहीं आ रहा था कि आज ऐसा क्या हुआ था कि सब इतने व्यस्त हो गए थे औऱ इस कल की लक्ष्मी का ध्यान आज किसी को क्यों नहीं आ रहा था। घर में आई हुई नई ख़ुशी के पीछे आज यह कल की परी बेगानी हो गई थी। क्या उसकी पहचान वाकई में बदल गई थी? क्या समाज के सच्चे - झूठे रिवायतों ने उससे उसकी पहचान छीन ली थी? क्या यह हमारे समाज का एक करूप रूप था!

कितने ही सवालात, कुछ उसकी समझ के मुताबिक, कुछ उसकी समझ से परे, उसके मस्तिष्क में घूम रहे थे। समय निकलता गया और आगे चलकर समाज के तौर  तरीकों ने उससे उसकी पहचान करा दी। कल की परी हर पड़ाव पर अपनी पहचान बदलती गई। कभी किसी की बेटी, कभी बहिन; कभी पत्नी, कभी बहू; कभी माँ ! कितने ही रिश्तों के तमगे उसे पहनाये गए पर उसका असली अस्तित्व अभी भी कहीं गुम था। पर ऐसा कब तक चलता। अब उम्र के कई पड़ाव पार करके वह समाज और इसकी कुरीतियों को खूब समझ चुकी थी।

या आज शायद वह नींद से जाग गई थी । वह आधुनिक भारत की नारी जहाँ संस्कारों की सुन्दर माला गले में पहने खड़ी है, वहीं आज महिला सशक्तिकरण के रूप में अपने अधिकार को भी खूब समझ चुकी हूँ। आज वह खुले आसमान के नीचे परिंदो की तरह उड़ना जान चुकी है। एक तरफ मर्यादाओं का पालन तो दूसरी तरफ सामाजिक बदलाव, आज यही उसकी असली पहचान है।


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