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Sandeep Jain

Drama

4.6  

Sandeep Jain

Drama

मेरी "माँ" !!!

मेरी "माँ" !!!

10 mins
370


बात कुछ लगभग ७२ वर्ष पूर्व की है। एक प्यारी सी बच्ची का जन्म होता है “कानपुर” के एक संस्कारित और बेहद धार्मिक परिवार में। पिता लोहे की दलाली करते हैं माँ घर सँभालती है और यह परिवार एक छोटे से किराये के मकान में गुजर बसर कर रहा है। बच्ची को अपनी “अम्मा” (मगनदेवी जैन) और “पिताजी” (विजय कुमार जैन) के साथ - साथ दादी, नानी, बुआ, मौसियों और मामियों के परिवार का भी भरपूर स्नेह मिल रहा है। पिता की देखभाल और माँ के संस्कारों के बीज इस बच्ची के मस्तिष्क में अंकुरित हो रहे है। और इस बढ़ते हुयें मस्तिष्क के साथ इस बच्ची का नाम रखा जाता है “लता” जो स्वयं में हर हाल में आगे बढ़ते रहने का प्रतीक है।

यह बात उस समय की है जब “लता” लगभग १ वर्ष की है। अपनी नानी के घर के आँगन में यह बालपन में मोटे - मोटे चींटों को चुटकी से दबा कर निगल रही है और तभी एक चींटा ज़िंदा जीभ पर चिपक जाता है और इस बच्ची को प्रकृति “जियो और जीने दो” का अपना पहला सबक़ सिखाती है।

धीरे - धीरे परिवार बढ़ता है और १२ वर्ष की उम्र होते - होते “लता” की तीन छोटी बहनें “रेखा, शोभा और क्षमा” और दो भाई “अजित और प्रदीप” भी ज़िंदगी का अभिन्न हिस्सा बन जाते है। इसी उम्र है स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ मंदिर जी में बड़े वर्णी जी के सानिध्य में समानांतर “जैन - दर्शन” की पढ़ाई भी “लता” अव्वल दर्जे से उत्तीर्ण करती है। साथ ही घर पर “अम्मा” का हाथ बटाना और छोटे भाई - बहनों का ख़्याल रखना भी रोज़मर्रा की दिनचर्या का एक हिस्सा बन जाता है। सभी भाई - बहन अपनी बड़ी बहन को “जीजी” के नाम से संबोधित करते है। और अपने से ठीक छोटी बहन “रेखा” के साथ “लता” की छोटी - मोटी नोकझोक और प्रतिस्पर्धा ज़िंदगी में एक अनूठा रस घोलती रहती है।

“लता” बाल्यावस्था से किशोरावस्था में कदम रख रही है। सौम्यता और सुदंरता शनैः शनैः अपने पाँव पसार रही है तभी इस बालिका के शहर में आगमन होता है जिनधर्म की आर्यिका ज्ञानमती माता जी का। बालिका माता जी के प्रवचन, आहार, विहार और दिनचर्या से कुछ इस कदर प्रभावित होती है कि एक दिन वो धर्मशाला में उन्हीं के पास रूक जाती है और मन ही मन जिन-दीक्षा का संकल्प धारण कर लेती है, “अम्मा” को पता चलता है तो वो दौड़ी - दौड़ी “लता” के पास पहुँचती है बहुत समझाती है पर “लता” अपने फ़ैसले पर अडिग। बात “पिता जी” तक पहुँचती है तो वो “लता” के पास आते हैं और उनके समझाने पर भी न मानने पर एक “थप्पड़” लगाकर बमुश्किल उसे घर वापस लाया जाता है।

“लता” की उम्र १७ वर्ष हो गयी है। ”अम्मा” की नज़र कानपुर की एक दावत में एक सावँले से लड़के पर पड़ती है जिसका ज़िक्र जब वो “लता” के पिताजी से करती है तो पता चलता है कि यह लड़का आगरे के एक प्रतिष्ठित परिवार से है जिनका बहुत बड़ा लोहे का व्यवसाय है। ”अम्मा” मन ही मन इस लड़के में अपने होने वाले “कुँवर जी” की छवि देखती है और उनके आग्रह पर “पिताजी” “लता” का रिश्ता लेकर आगरे जाते है। लड़के का नाम “विजय” है जोकि संयोगवश “लता” के पिताजी के नाम से मिलता है। लगभग ६ महीने के अंतराल के बाद लड़के के जीजाजी लड़की से बात करने कानपुर आते है और “लता” से बात कर इस रिश्ते को अपनी स्वीकृति प्रदान करते है।

लगभग १८ वर्ष की उम्र में “लता” का विवाह “विजय” से हो जाता है। और “लता” बहुत जल्द अपने स्नेह, व्यवहार और प्यार से अपनी ससुराल में सभी का दिल जीत लेती है। ससुराल में हर तरह के सुख “लता” को मिल रहे है और “विजय” के साथ कभी “काश्मीर” तो कभी “दार्जिलिंग” घूमते व्यतीत हो रहे है।

कुछ शुरुआती वर्ष आगरे में तो कुछ वर्ष “कलकत्ता” में गुज़ारते। अंततः एक पुत्री (कविता) और एक पुत्र (संजय) के साथ “लता” पुनः एकबार अपने परिवार के साथ “कानपुर” आ जाती है। ”कानपुर” आने के बाद “लता” के लगभग ६ - ७ वर्ष हँसी - ख़ुशी बिना किसी परेशानी के गुजरते हैं और इस बीच दो और पुत्र (संदीप और विकास) “विजय” और “लता” के जीवन का हिस्सा बन जाते है।

और अब शुरू होता है “लता” के जीवन में संघर्षों का दौर। परिवार का व्यवसाय अचानक से पूरी तरह ठप्प हो जाता है सारी संपत्तियाँ यहाँ तक कि घर के ज़ेवर तक बिक जाते है। और इस अचानक से आये बदलाव के कारण “विजय” गंभीर मानसिक अवसाद का शिकार हो जाते है। कई - कई दिनों तक बिस्तर पर ही पड़े रहना। कोई काम न कर पाना और फिर अचानक से बिना बात परिवार पर (ख़ास तौर पर “लता” के साथ) ढेर सारा क्रोध तो मानो “विजय” की रोज़ की ज़िंदगी का हिस्सा बन जाता है। पहले तो शुरू के दो चार वर्ष ज़रूरतों की पूर्ति बचे हुए ज़ेवरों और “अम्मा” “पिताजी” के सहयोग से की जाती है। फिर “लता” परिवार के पालन के लिये स्वयं ही कुछ करने का फ़ैसला करती है।

धर्म की पढ़ाई के समय साथ रहे “राजू भैय्या” “लता” को अपने होजरी के कारख़ाने से “आई-हुक” बनाने का काम देते है १२ पीस “आई-हुक” सिलने पर १ रूपये का मेहनताना। और यहाँ से शुरू होता है “लता” के जीवन का अगला सफर जिसमें एक ओर उसे अपने चिड़चिड़े और ग़ुस्सैल मानसिक अवसाद से पीड़ित पति को सँभालना है तो वहीं दूसरी तरफ़ चारों बच्चों की ज़िम्मेदारी, जिनका दाख़िला परिस्थितियों के चलते पहले ही अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों की बजाय साधारण हिंदी माध्यम स्कूलों में कराया जा चुका है। संघर्ष के इस दौर में “अम्मा” और “पिताजी” का आंशिक सहयोग और खुद की ख़ुद्दारी और बच्चों के सहयोग के बल पर जीवन की गाड़ी धीरे - धीरे रेंग रही है। इस मुश्किल दौर में भी कैसे आत्मसम्मान के साथ स्वयं रहना है और कैसे वहीं आत्मसम्मान बच्चों के अंदर भी बनाये रखना है इसमें तो मानो जैसे “लता” को विशेष महारथ हासिल है।

समय आगे बढ़ता है और वक्त के साथ परिवार की ज़रूरतें भी बढ़ती है और इस मुश्किल दौर में किसी के भी आगे हाथ फैलाने की बजाय “लता” अपनी ज़िंदगी का एक और अहम निर्णय लेती है और वो है काम के लिये घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने का कदम। बच्चे छोटे हैं और अपने परिवार के पालन के लिये स्वयं “लता” पिता का दायित्व सँभालती है। बड़ी बेटी “कविता” सँभालती है बहन के साथ - साथ माँ का दायित्व और तीन कम उम्र के उसके बेटे सँभालते है “आई-हुक” को कारख़ाने पहुँचाने और माँ के अगले कदम पर उसका साथ निभाने का कार्य।

और “लता” का अगला कदम है एक अच्छी क्वालिटी के “डिटर्जेंट” के पैकेट घर पर मंगाना। और फिर उन्हें अपने ही समाज के परिवारों में जाकर घर - घर देना। और इसके साथ कपड़ों का कलफ़, घर का बना शैम्पू और घर की बनी “सलोनी मंगौडी” पूरे कानपुर में स्थित सैकड़ों घरों के साथ - साथ “हिंदुस्तान नमकीन” नवीन मार्केट स्थित दुकान तक पहुँचाना।

“लता” की ज़िंदगी का यह वो कठिन दौर है जब उसे किसी भी हाल में रोज़ कमाना है फिर रोज़ खाना। मेहनत इतनी कड़ी कि उसका वर्णन ही करना बहुत कठिन। सुबह - सुबह ६ बजे उठना फिर कम से कम ४ से ५ किलो मंगौडिया अपने हाथों से तोड़ना। फिर नहा धोकर मंदिर दर्शन एवं नाश्ते के बाद ११ - १२ बजे टिफ़िन के साथ घर से निकली “लता” पूरे दिन की कड़ी मेहनत के बाद शाम को कभी ७ तो कभी ८ बजे घर वापस आ रही है पर हमेशा मुस्कुराती हुईं। क्योंकि उसे पता है कि उसकी मुस्कुराहट में ही बच्चों की निश्चितता और बेहतर भविष्य छुपा हुआ है।

इस मुश्किल दौर में बच्चों का काम है मंगोडियों की ट्रे को तीन मंज़िल उपर छत तक पहुँचाना। ”डिटर्जेंट” के पैकेट की बोरियाँ घर तक दो मंज़िल, पीठ पर लादकर चढ़ाना और साथ ही आस - पास के घरों में ये सारा सामान हर महीने पहुँचाना। घर पर बनी मगौडियों के पहले पैकेट बनाना और फिर उन्हें “हिन्दुस्तान” वाले के यहाँ साइकिल से पहुँचाना भी बच्चों के ही कार्य में शामिल था।

“अम्मा - पिताजी” के परिवार के सहयोग से अब समय आता है “लता” की एकमात्र पुत्री “कविता” के विवाह का जो सकुशल संपन्न होता है एक सभ्य एवं संस्कारी परिवार में।

वक्त गुजरता है और “लता” का बड़ा पुत्र “संजय” अपनी छोटी मौसी “क्षमा” के यहाँ “चाँदपुर” उनके कार्य में मदद एवं साथ ही घर की मदद के लिये काम सीखने जाता है मगर क़िस्मत की मार तो देखिये “लता” की अगली उम्मीद उसका बड़ा पुत्र “संजय” एक ट्रैक्टर ट्राली दुर्घटना में स्वर्गवासी हो जाता है। इस “माँ” का दिल तो मानो पूरी तरह टूट जाता है पर जैसे - तैसे वो परिवार की ज़िम्मेदारियों के तहत अपने आप को एक बार फिर सँभालती है और जुट जाती हैं फिर से एक बार..

“लता” के जीवन में एक और बड़ा दुख तब आता है जब उसकी पुत्री “कविता” की बेटी मात्र नौ महीने की उम्र में कूलर में करंट उतर जाने से काल के गाल में समा जाती है। पर उसकी धैर्य की सीमा का बांध तब टूट जाता है जब उसकी अगली उम्मीद यानि उसके शेष दो पुत्रों में बड़े पुत्र “संदीप” के सर पर उसका मानसिक अवसाद का शिकार पति “विजय” क्रोध में कपड़े धोने वाला लकड़ी का बैट मार देता हैं और वो गंभीर रूप से घायल हो जाता है। मानो “लता” की अभी तक की जुटाई सारी मानसिक ताकत क्षीण पड़ जाती है और उसको अपनी ज़िंदगी में पहली बार एक बेहद तीक्ष्ण “मानसिक अवसाद” का सामना करना पड़ता है। पूरी ज़िंदगी संघर्ष करती आई “लता” अब वक्त के हाथों अपने हथियार डालती अपने “मानसिक अवसाद” से उबरने के लिये कभी डाक्टरों की दवाई तो कभी धर्म के सहारे अपनी ज़िंदगी का वक्त गुज़ारने के लिये मजबूर हो जाती है।

समय बीतता है और घर की ज़िम्मेदारियों में हिस्सा बँटाने के लिये “लता” का बड़ा पुत्र “संदीप” पहले एक स्थानीय कंप्यूटर साफ्टवेयर कंपनी में विक्रय प्रतिनिधि की नौकरी और फिर अपने इसी कंपनी के ज़रिये बने मित्र “योगेश” के साथ कंप्यूटर हार्डवेयर (आर्यन कंप्यूटर) के व्यवसाय की शुरूआत करता है। और छोटा पुत्र शिक्षा के क्षेत्र में अपने स्वयं के इंस्टीट्यूट (विधासागर) की शुरूआत करता है।

वक्त गुजर रहा है और हालात भी सुधर रहे है। ”लता” द्वारा की गई बेपनाह मेहनत रंग ला रही है और उसके दोनों पुत्रों का व्यवसाय पनप रहा है और साथ ही बदल रही है घर की वित्तीय स्थिति। समय के साथ दोनों पुत्रों का विवाह होता है। और “लता” का समय फिर से एक बार परिवार के सानिध्य में और धर्म के पालन के साथ आगे बढ़ निकलता है।

“लता” अब ६६ वर्ष की हो चुकी है। पुत्री का बड़ा पुत्र “शुभम” आई आई टी रुड़की से अपनी पढ़ाई पूरी कर के बंगलौर की एक साफ्टवेयर कंपनी में अच्छी नौकरी पा चुका है, छोटा पुत्र “शोभित” अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी कर रहा है। बड़े और छोटे पुत्र अपना - अपना व्यवसाय बख़ूबी संभाल रहे है। और बड़े पुत्र की दोनों बेटियाँ अच्छे से अपनी पढ़ाई की राह में आगे बढ़ रही है। पर तभी अचानक से “लता” को पता चलता है कि उसे तीसरी स्टेज का ब्रेस्ट कैंसर हैं और डाक्टरों के अनुसार उसकी ज़िंदगी अधिक से अधिक एक वर्ष ही शेष है। पर अपने पूरे जीवन में संघर्ष करती आई “लता” कहाँ हार मानने वाली है। वो अगले तीन सालों तक इस कैंसर की बीमारी को अपनी जीवंतता से हराते हुये। अंतिम क्षणों तक अपने परिवार पर अपना प्यार लुटाते। अंततः ६९ वर्ष की आयु में अपने परिवार को छोड़ कर चिरनिद्रा में लीन हो जाती है।

और अपने पीछे छोड़ जाती है एक ऐसी ज़िंदगी की कहानी जो धैर्य, मेहनत, सकारात्मकता, जुझारूपन और प्यार की एक अनूठी मिसाल है।

जी हाँ। एकदम ठीक। आज “माँ-दिवस” पर ये कहानी है मेरी “माँ” की ज़िंदगी की। LOVE YOU “लता-माँ”।

(मुझे आज भी याद है आपकी मृत्यु से मात्र सात दिन पहले का वो दिन। जब आक्सीजन सिलेंडर लाने में मेरे हाथ में छोटी सी चोट लग जाती है और इतनी असहनीय वेदना में भी आप ज़बरदस्ती मेरे हाथ पर दवाई लगाती हो।

बाक़ी आज जो भी हूँ जितना भी। सब आप ही की कड़ी मेहनत और प्यार की वजह से हूँ। आपका बेटा – संदीप 


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