माँ को अष्ठमी की वो अंजलि
माँ को अष्ठमी की वो अंजलि
रात के 3 बज रहे थे। वो 80 साल की महिला अपने घर में अकेले सो रही थी। अक्टूबर का महीना और बंगाल में दुर्गा पूजा की सप्तमी की वो रात। सुबह की हलकी हलकी ठण्ड और ऊपर से रात से चलता हुवा वो पंखा। 80 साल की वो बूढ़ी माँ ठण्ड में ठिठुर रही थी। ऊपर चलते पंखे को देख देख कर सोच रही थी की काश कोई इसे बंद करदे पर घर में तो वो अकेले रहती थी। तीन बेटों और दो बेटियों की शादी के बाद उसने कभी ये ना सोचा था की ऐसा भी दिन आएगा जब उसके साथ कोई ना होगा। दोनों बेटियां अपने अपने ससुराल में आराम से थी। तीनों बेटे शादी के बाद बाद एक एक करके माँ से अलग रहने लगे थे। सबसे छोटे वाला माँ को कभी छोड़ना नहीं चाहता था पर पत्नी के सामने उसकी एक ना चली और वो भी माँ से दूर रहने लगा।
बूढ़ी माँ सोये सोये उन दिनों को याद कर रही थी जब बेटे बेटियां छोटे थे। जब वे रात में अपनी चादर हटा देते थे तब वही माँ रात में जब भी नींद खुलती, पहले बच्चों की चादर ठीक करती थी। जब कभी वे थक जाते तो उनके पैर दबती थी। उन्हें नींद ना आती तो खुद थके रहने के बावजूद उनको पहले गाकर सुलाती थी बाद में ही खुद सोती थी।
एक विडंबना ये भी हैं की इन बूढ़ो के माँ बाप नहीं होते जिससे ये अपना दर्द किसी को नहीं कह पाते। पंखे से ठण्ड बढ़ती जा रही थी और आँख से आंसुओ की धार भी। सुबह होते होते उस ठण्ड ने बुखार का रूप ले शरीर को अपने आप गर्म कर दिया था।
सुबह सुबह अष्ठमी की "माँ" दुर्गा की अंजलि पूजा के लिए बेटे बहुएँ अपने घरों से निकल पड़े थे। पूजा करते वक़्त माँ से यही माँगा की माँ हमें खूब सुख सम्पति देना और " माँ " दुर्गा भी ऐसी की उनकी इच्छानुसार वरदान दे दिया। वो "माँ " थी ना अपने बच्चों की इच्छा पूरी जरूर करती चाहे बच्चे जैसे भी हों।
सुना है की "बुढ़ापा बहुदा बचपन का पूनरागमन हुवा करता है" जिसमें बूढ़े बच्चों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। जिसमें उनको ये नहीं समझ आता की क्या सही है क्या गलत - उन्हें कोई समझाने वाला चाहिये होता है।
बूढ़ी "माँ " की यही गलती थी की वो बूढ़ी हो चुकी थी।