Kirti “Deep”

Children

4.5  

Kirti “Deep”

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हँसता बचपन

हँसता बचपन

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शाम ढल रही थी और रात तेज़ी से अपने क़दम बढ़ा रही थी, मानों पूरा गाँव अंधेरे में जा रहा हो, सभी अपने काम निपटा घर जा चुके हैं, पर इन सभी बातों की परवाह किए बिना विजय सुनसान रास्ते में गुनगुनाता चला आ रहा है, “वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।”

विजय जो कि आठ साल का बालक है और हमेशा अपनी दुनिया में मस्त रहता है। बिना किसी की परवाह किए बिना बस अपने मन की करता है। घर पहुँच विजय ने ज़ोर से घर का दरवाज़ा खोला और गुनगुनाता हुआ आँगन में आ हाथ मुँह धोने लगा।

"अरे कमबख़्त ! कहाँ था तू इतनी देर से ? क्या दिख नहीं रहा था तुझे कि रात हो रही है ? सब अपने घर आ चुके हैं, तू कहाँ यार दोस्ती में बैठा रहा है ?" ये कंपकंपाती आवाज़ विजय की दादी की थी, जिनकी चारपाई आँगन में पड़ी रहती थी, जिस से वो घर के हर सदस्य की क्रियाओ पर ध्यान रखती थी। विजय मानो उनकी आवाज़ सुन ही नहीं रहा था या यूँ कहो कि ये सभी बातें उसके लिए नयी नहीं थी। वह हाथ मुँह धो सीधे रसोई में गया जहाँ उसकी माँ खाना बना रही थी।

"माँ ! बहुत ज़ोरों से भूख लगी है, जल्दी से खाना दे दो न !"

"हाँ, तू बैठ मैं अभी खाना परोसती हूँ।" विजय की माँ ने कहा। माँ के हाथ का खाना विजय को मानों दुनिया का सबसे स्वादिष्ट खाना लगता है और उसने झट से अपनी थाली साफ़ कर दी और हाथ धो छत पर चढ़ गया। उधर दादी का दिल शायद अभी भरा न था।

"विजय की माँ तू बिगाड़ ले इस लड़के को, मैं कह देती हूँ ये हाथ से निकल जाएगा।"

"अम्मा अब बस भी हो करो, अभी बच्चा है बड़े होकर सब समझ जाएगा," कहते कहते विजय की माँ रसोई का काम निपटाने लगी और दादी अपनी उम्र के कारण लगातार बड़बड़ा रही थी। विजय की माँ ने दादी को खाने की थाली दी और वो भी छत पर चढ़ गयी, जहाँ विजय इस बड़े से आसमान के नीचे लेट तारों को देखे जा रहा था और अपने स्कूल की कवितायें गुनगुनायें जा रहा था। माँ, विजय के पास आ कर बैठ गयी कि झट विजय ने अपना सर माँ की गोद में रख दिया। "अच्छा विजय आज तू इतनी देरी से घर क्यूँ आया ?" माँ, विजय का सर सहलाते हुए पूछने लगी।

"माँ हमारे स्कूल में अगले हफ़्ते कविता प्रतियोगिता है तो बस उसी की तैयारी करने के लिए ताऊजी के घर गया था ताकी उनसे कुछ वीर रस की कवितायें सीख सकूँ। बस उसी में देरी हो गयी माँ।"

"हम्म ! ये तो अच्छी बात है कि तू प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहा है, पर बेटा घर में पहले बता कर जाना चाइए था न कि आज तू देर से आएगा, घर में सब परेशान हो जाते हैं।"

"सॉरी माँ मैं भूल गया था अगली बार ऐसा नहीं होगा।"

"ये हुई न बात मेरा राजा बेटा"

और माँ फिर से विजय का सर प्यार से सहलाने लगी। तभी विजय ने एक सवाल और माँ के सामने रख दिया। "माँ मैं कब बड़ा होऊँगा ?" माँ ने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ पूछा- "तुमको क्यूँ बड़ा होना है ? बड़े होकर क्या करना है ?"

"माँ, मैं जब बड़ा हो जाऊँगा न तो कोई मुझे किसी बात के लिए नहीं टोकेगा, मेरा जो मन करेगा मैं वो किया करूँगा और जितनी देर दोस्तों के साथ मन करेगा उतनी देर खेलूँगा।"

तभी माँ ठहाके की हँसी के साथ बोली- "बड़े होकर भी दोस्तों के साथ खेलोगे ?"

"क्यूँ नहीं माँ, क्या बड़े होने के बाद भी मुझे आपसे इजाज़त लेनी होगी"

विजय ने एक उत्सुकता की नज़र से माँ की तरफ़ देख कर पूछा। माँ ने प्यार से विजय का हाथ अपने हाथ में ले सहलाते हुए बोली, ”बेटा बड़ों की इजाज़त लेना हमारी मजबूरी नहीं होती, बल्कि बड़े हमसे ज़्यादा समझदार और अनुभवी हाते है इसलिए वो हमेशा हमारी भलाई के लिए ही कहते हैं। जो बात आज तुम्हें अच्छी नहीं लगती, जो टोका टाकी तुमको बंधन लगती है वो सब तुम्हारी भलाई के लिए ही होता है। हम किसी ग़लत रास्ते पर न चले जायें इसलिए वो हमें समय समय पर समझाते रहते हैं और ये बड़ों की डाँट नहीं बल्कि उनका प्यार करने का तरीक़ा होता है। और रही बात बड़े होकर दोस्तों के साथ खेलने की तो बेटा बड़े होकर हम अपने जीवन की ज़िम्मेदारियो में इतना उलझ जाते हैं कि ख़ुद ही अपने अंदर के बच्चे को छुपा लेते हैं और हमें उम्र भर उस छिपे हुए बच्चे से मिलने का मौक़ा ही नहीं मिलता।

तुम आज जीवन के जिस मोड़ पर हो वो अवस्था हमारे जीवन की सबसे अच्छी और सुनहरी अवस्था होती है, और वो होता है हमारा बचपन। बचपन की यादों से सुंदर इस दुनिया में कुछ भी नहीं है। वो हँसना, रोना, शैतानी करना, स्कूल जाना, पतंग उड़ाना, छत पर घंटों तारे गिनना, ताऊ जी से वीर रस की कवितायें सुनना, दादी की प्यार भरी डाँट सुनना, बाऊजी से अपनी चीज़ों की फ़रमाइशें करना, माँ के हाथ का खाना खाना। ये सब एक दिन तुमसे दूर हो जाएगा और तुम्हारे पास होगा तो बस पैसा, ज़िम्मेदारी और एक अधूरी सी नींद। इसलिए जो अभी हाथ में है उसे खुलकर जियो, हर पल मुस्कुराओ, हर पल की यादें बनाओ।"

ये कहते-कहते जब माँ ने नीचे देखा तो विजय सपनों की दुनिया में खो चुका था, विजय कब सो गया था माँ को पता ही नहीं चला। और इसी तरह विजय रोज़ अपने बड़े होने के सपने को देख आगे बढ़ता गया। समय यूँ ही बीत गया और विजय कब बड़ा हो गया पता ही नहीं चला।

अब विजय गाँव में नहीं शहर में रहता है, अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद एक अच्छी नौकरी करता है। विजय के दो बच्चे भी हैं और वो एक ख़ुशहाल ज़िंदगी जी रहा है। बाऊजी के निधन के बाद विजय की माँ विजय के साथ ही रहती है। और विजय आज भी लेट आता है पर दोस्तों से मिलकर नहीं बल्कि अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने का बोझ उसको जल्दी आने नहीं देता।

आज विजय फिर देर से घर आया। रात के १२ बज रहे हैं, विजय ने धीरे से दरवाजा खोला, पूरे घर में अंधेरा था, लाइट जला, अपने कपड़े उतार, हाथ मुँह धो, खाना खा विजय छत पर चढ़ गया। थोड़ी देर बाद छत पर किसी और के चढ़ने की आहट आयी तो देखा माँ धीरे-धीरे लाठी के सहारे विजय के पास आ रही थी। विजय झट खड़ा हुआ और माँ को सहारा दे बैठाया और फिर खामोश हो तारों की और देखने लगा।

माँ, विजय के चेहरे से सब पढ़ चुकी थी पर ना जाने क्यों वो सब विजय से सुनना चाहती थी और ज्यों ही माँ ने प्यार से विजय के सर पर हाथ रखा तो मानों जैसे विजय टूट गया हो और झट से उसने माँ की गोद में सर रख लिया। माँ घबरा गई और बोली, "क्या हुआ मेरे राजा बेटे, इतना परेशान क्यों है ?" फिर जो विजय ने माँ से कहा उसे सुन माँ सालो पुरानी यादो में चली गयी। विजय ने माँ से आज फिर एक सवाल किया, “माँ मैं बड़ा क्यों हो गया ? हम बड़े क्यों हो जाते हैं ? हम हमेशा उसी बचपन में क्यों नहीं रह सकते ? भगवान की कृपा से आज सब कुछ है, अपना घर है, पैसा है, दोनों बच्चे अच्छी पढाई कर रहे हैं। फिर भी वो सुकून, वो नींद क्यों नहीं है माँ जो बचपन में हुआ करती थी। क्यों मैं बचपन में झट से सो जाया करता था और अब कब पूरी रात दीवारों को ताकते हुए निकल जाती है, पता ही नहीं चलता। क्यूँ अब खुल कर हँसे हुए मुझे जमाना हो गया, क्यूँ मैं किसी के सामने रो नहीं सकता ? क्यूँ अब सारे दोस्त खेलना तो दूर, सालों एक दूसरे से मिल नहीं पाते ? क्यूँ मैं बच्चों जैसी हरकते करने से डरता हूँ ? क्यूँ मैं वो वीर रस की कवितायें भूलता जा रहा हूँ ? क्यूँ मैं अब किसी से फरमाइशें नहीं कर सकता हूँ ? क्यूँ हर वक़्त मुझे अपने बच्चो के भविष्य की चिंता सताई रहती है ? बहुत अरसा हो गया माँ वो छत पर तारे नहीं गिने, बारिश में नहाया नहीं हूँ, पतंग नहीं उड़ाई, साइकिल नहीं चलाई, कब से तेरे आँचल में सोया नहीं हूँ ? ना जाने कब से माँ ? ये फिर से बचपन क्यों नहीं आएगा माँ ?"

माँ बड़ी आसानी से विजय का दर्द समझ गई और उसने फिर से विजय को जिंदगी की कुछ बातें समझाई-

"बेटा हमारे जीवन में हमारी हर अवस्था सिर्फ एक बार आती है ये सब हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम अपनी आयी हुई अवस्था को कैसे जीते हैं ? यूँ तो ये मैं भी मानती हूँ की बचपन सबसे सुन्दर होता है पर हम हमेशा बच्चे नहीं रह सकते। हमें प्रकृति के नियम के साथ ही चलना पड़ता है। जैसे जब एक दिन सुबह से शुरु हो रात को ख़तम होता है, ठीक उसी तरह से हमारा जीवन बचपन से शुरू हो, बुढ़ापे पे ख़त्म होता है और अपने जीवन के हर दिन को हमें दिल खोलकर जीना चाहिए।

जब हम बच्चे होते हैं तो हमें जी भर के खेलना चाहिए, फिर हम बड़े होते हैं तो हमें अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए जी भर कर पढाई करनी चाहिए। जब हमारी शादी होती है तो हमें हँसते हुए गृहस्थ जीवन की सारी जिम्मेदारियाँ उठानी चाहिए। जिम्मेदारियाँ कभी बोझ नहीं होती, वो हमें कमजोर नहीं करती, बल्कि जिम्मेदारियाँ हमें सबसे ज्यादा मजबूत बनाये रखती हैं। जिम्मेदारियों की वजह से ही हम जीवन में हमेशा आगे बढ़ने की सोचते हैं। हमारा बचपन कभी हमसे दूर नहीं जाता, बल्कि हम खुद बचपन से दूर हो जाते हैं। कौन तुम्हें मना करता है अब खुल कर हँसने से ? क्यूँ तुम दोस्तों के साथ घंटो नहीं बैठ सकते ? क्यूँ तुम आज वीर रस की कविताये पढ़ने में झिझकते हो ? बेटा ! हमारे पास एक ही जीवन होता है और ये पूरी तरह हम पर निर्भर करता है कि इसे हम हँसते हुए जियेंगे या एक बोझ समझ कर जियेंगे ? हमें खुद अपने लिए अपने व्यस्त जीवन से समय निकालना होगा वर्ना जीवन तो यूँ भी भागा ही जा रहा है।

हमें अपने अंदर की इच्छाओं को, शौक को, खुशियों को अपनी व्यस्त दिन चर्या का बहाना कभी नहीं देना चाहिए। जीवन में आगे बढ़ना बहुत अच्छी बात है पर जीवन खुशहाल तब रहेगा जब हम पुरानी अच्छी यादों को भी अपने साथ साथ जीतें रहे। खूब हँसो, दोस्तों से मिलो, छुट्टी वाले दिन बच्चों के साथ खेलो, घूमने जाओ, कभी खाली बैठ आसमान के तारे गिनो, खुद के बचपन की कविताएँ अपने बच्चों को सिखाओ और जब भी जरुरत हो माँ के आँचल में सोने से मत झिझको। मैं तो बस यही समझाती हूँ बेटा की अपने बच्चो के साथ अपना बचपन फिर से जिओ, और हमारे अंदर का बच्चा जो कहीं छुप गया होता है उसे हमेशा जिन्दा रखो और फिर देखो ये जिंदगी कैसे हँसते हुए गुजर जायेगी।"

माँ अभी भी विजय का सिर सहला रही थी और विजय आँख बंद कर फिर से अपने बचपन की दुनिया में जा चुका था, जहाँ से उसे दिख रहा था अपना वो खूबसूरत बचपन, अपना वो हँसता हुआ बचपन।


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