गटरबाज़
गटरबाज़
"ए भाई यह क्या हो रहा है..." पीछे से आई कड़कती आवाज सुन बांए पांव के चीरे और खून बहते तलवे पर पेशाब करता मदन सकपकाया। पीछे मुड़ा। अधेड़ उम्र बंदा उसे घूरता दिखा। मदन ने चुपचाप पांव सामने कर दिया।
"ये तो देखा मैंने, लेकिन तुम कर क्या रहे हो?"
"इलाज कर रहा हूं... गटर साफ करता हूं सर, हफ्ते में दो-तीन बार तो पांव कटता ही है... पैसे नहीं हैं... यही ईलाज है..." मदन ने मजबूरी जताई।
"क्यों... नगरपालिका देती नहीं है फर्स्ट ऐड?"
मदन ने मन ही सोचा। नगरपालिका देती तो ये क्यों करते? गटर से जो सड़ांध उड़ती है, वह इनके घरों के बाथरूम और पखाना से नहीं आती, दिमागों से अधिक आती है। यह सभ्य समाज, कितना असभ्य है, आप जानते ही नहीं। जो कूड़ा-कचरा घर के कूड़ेदान में भर कर नगरपालिका की गाड़ी में डालना चाहिए, वह गटरों के हवाले करते हैं। बच्चों के डायपर, औरतों के पैड, मर्दों के कंडोम... यहां से क्या नहीं निकलता! पढ़े-लिखे मूर्खों की बेवकूफी निकलती है। वह भी इन्हीं नंगे हाथों से साफ करते हैं। न जाने कितनी बार मांगा लेकिन मास्क, दस्ताने, दवा, साबुन नहीं मिलते। पैर और जिस्म न जाने कितनी बार कांच और सरियों से जख्मी होते हैं लेकिन हमारी परवाह किसे है। अपने बेटे को खूब पढ़ाने की लालसा में सभ्य समाज का पैदा किया ये नरक हर दिन भोगता हूं। अंदर भयंकर बदबूदार गैस भरी है, जिसमें कब दम घुट कर मर जाएं, पता नहीं। दो घूंट दारु पी लो, तो बदबू थोड़ी देर के लिए नहीं लगती। कनखजूरे, बिच्छू, तिलचट्टों की फौज सदा हमला करती है। गंदे गैस और पानी से आंखों में इतनी जलन होती है कि न दिन में चैन, न रात में नींद। लगता है कि फेफड़े अब जवाब दे देंगे, तब हार जाएंगे। पेट में मरोड़े उठती हैं। उल्टी-बुखार तो आम है। गैस के असर में धुंधला सा दिखने लगा है। हड्डियों के जोड़ टीसते हैं। मेरे साथ के न जाने कितने मसान जा पहुंचे।
"गटर में कितनी मौतें हुई?" अधेड़ बंदे की आवाज आई तो मदन जागा।
"यह पूछिए सर कि गटर से जिंदा कितने निकले..." मदन ने दोबारा मुंह फेर चिरे तलवे पर बरसों का आजमाया देसी लेकिन रामबाण इलाज दोबारा शुरू कर दिया।