एहसास तुम्हारा
एहसास तुम्हारा
मैंने यू तो कई बार खाना पकाते वक्त दोनों हाथों का प्रयोग एक साथ किया था अर्थात् एक तरफ कड़ाही में खौलते हुए तेल में जीरा ,प्याज आदि को एक हाथ से करछूल से पकाना तो दायेंसे आटा लगाना।इस प्रक्रिया में हांथ उतनी कुशलता से नहीं चलते थे किन्तु आज रात का खाना पकाते वक्त दोनों हाथ ऐसी कुशलता से चल रहे थे जैसे इन्हे एक साथ काम करने की महारथ हासिल हो। कई वर्षों से हम दोनों अर्थात् मै और मेरा इकलौता अनुज इस छोटे से कमरे के एक कोने में एक साथ मिलकर साथ - साथ भोजन पकाते आए हैं किन्तु सामान्यतः मेरे हाथ केवल सब्जी बनाना ही पसंद करते थे कभी कभी जब तुम नहीं होते थे गाँव गए होते थे तो उस समय मैं खाना बनाने में समय बचाने के लिए दोनों हाथो का प्रयोग करता था किन्तु हमेशा ये हाथ आटा लगाने या रोटी बेलने में आवारगी करते थे मतलब रोटी पकाने का काम सही से नहीं हो पता था।फिर भी ये हाथ आज इतनी कुशलता और गंभीरता से यह काम भी कर रहे हैं ।शायद इन्हे भी पता हो गया हो कि अब हर रोज़ ये काम अब इन्हे ही करना पड़ेगा। इन्हे पता हो गया था कि गांव मझियारी से इलाहाबाद शहर में पढ़ने के लिए आया हुआ वह मेरा साथी अपनी नाकामी का ठीकरा इस शहर की शिक्षा व्यवस्था पर फोड़कर कानपुर चला गया है । जहा सब कुछ उसके लिए नया होगा जैसे आशियां भी, बिस्तर भी कमरे कि दीवारें भी और एक बहुत जरूरी दृश्य जिसमें स्नान के बाद छज्जे पर बाल सुखाने के लिए आने वाली पड़ोसन भी। ये एक ऐसी चीज है जिसको देखकर छात्र पीवीआर में देखी गई पिक्चर का लुफ्त भी भूल जाते है।
जब मै 27 अप्रैल2008 को 14 बरस की उम्र में पढ़ने के लिए इलाहाबाद आया था और अपना घर छोड़ा था तब मुझे नहीं मालूम था कि मेरा घर जो मेरे लिए महल जैसा था , जहां मेरा बचपन बीता था, मेरा गांव जहां के पेंडो ,खेतो ,गलियों ,सड़कों, नालियों और छप्परों में होने वाले परिवर्तनो को मैंने हर रोज़ महसूस किया था , वहां की हर मौसमी खुसबू और हवाओं से गहराई से परिचित था , वो मेरे लिए किसी लड़की के मायके की तरह हो जाएगा जहा लड़कियां चंद दिनों के लिए मेहमान के रूप में जाती है। मुझे और मेरे जैसे करोड़ों लौंडो को ये नहीं पता होता कि वे उस महल में जहां के कोने कोने में उनकी आहट और आवाज़ बसी है वे वहां कभी कभी छुट्टियों पर ही जायेंगे।पता तो तब चलता है जब वे शहर आ जाते है और उनकी आंखे कैलेंडर में रक्षाबंधन और दीवाली, होली और ईद जैसे त्यौहारों की तारीख को रोज़ निहारती हैं। शहर में आए हुए हर लौंडे हर चीज़ से बेखबर हो सकते हैं लेकिन ये त्यौहार और तारीख वे हमेशा याद रखते हैं। जब हम वहां की याद आती है तो हम मम्मी पापा भाई बहन से जी भर के बात करते है लेकिन जी नहीं भरता क्यूंकि वास्तविकता तो यह है ना कि हम उनकी यादों के साथ साथ याद आती है मम्मी के डांट की उनकी जबरदस्ती की जो वो एक गिलास दूध हम जब तक ना पी ले तो सोने नहीं देती थी याद आती है पापा के उस बेरुखेपन की जो वो हमारे सुबह जलदी ना उठने पर दिखाते थे, और उस हसीन से सपने की जिसमें हम अपनी क्रश को गुंडों से बचा रहे होते थे जिस पर वो हमें प्यार से झप्पी देने वाली होती थी तभी पापा की 'उठ सबेर होइगा' वाली आवाज़ कानों में आ जाती थी और वास्तविकता का एहसास हो जाता था ,याद आती है दीदी से झगड़े की जो बेवजह हो जाया करता था , याद आती है उस प्यारे से मगर जोरदार चपाट को जो हम छोटे भाई के गाल या पीठ पर रख देते थे और अपने बड़े होने का 'एहसास' उसे करवाते रहते थे फिर भले ही अम्मी की अरहर के तने की पतली मगर मजबूत सेऊंटी हमारी पीठ पर अपनी दो चार छाप छोड़ देती थी।फोन पर हम इन सबका एहसास नहीं हो पाता ,उस नीम के पेंड का एहसास फोन से एनएच प्राप्त हो पाता जिसकी डाल पर हम सब बच्चे लोग झूला झूलते थे और चिर्री - पाती खेलते थे याद आती है खलिहान में खोदी गई उन छोटी- छोटी ' पिल्ली' की जिस पर डंडी लेकर खड़े होते थे और ' पिल दल दल ' खेलते थे। गेंद से ' गिप्पी' खेलना भी हम याद आता जिसमें हम सेट की हुई गिप्पी को हिट करने के 7 मौके मिलते थे और 7 वीं गेंद पर हिट करने पर अन्य सात मौके मिलते थे तब ऐसे लगता था जैसे नो बॉल पर फ्री हिट मिल गई हो।याद आती है कुएं के चारो ओर पत्थर के पटिया की सुबह के समय ठंडी हुआ करती थी और हम उस पर सुबह बिस्तर से आकर चिपककर कूलिंग का एहसास करने के लिए इस तरह लेट जाते थे जैसे पेंड़ से गिरगिट पसरा रहता है।याद आती है मिट्टी के उन खिलौनों की जिसे सुखाकर हम खेत में शाम को खेत के गड्ढे में कंडी बीनकर और आग से पकाने के लिए सुबह तक उन खिलौनों को गाड़ दिया करते थे और देखते की किसके खिलौने ज्यादा लाल है।
ऐसे बहुत सारे अनुभव और एहसास हमें गाव की याद दिलाते हैं और में प्रफुल्लित हो जाता है। और हम इन सबको अपरोक्ष रूप से मिस करते रहते है तथा उसको परोक्ष रूप से याद करते है जिसे हमने सुबह के सपने में कई बार गुंडों से बचाए थे और उसे बिना बताए इलाहाबाद चले आए थे। यार ये हाईस्कूल और इंटरमीडिएट का समय है ना इसे ग्रंथों में स्वर्णिम काल कहा गया है क्योंकि यह बचपन और जवानी का मिश्रण होता है। इसी जवानी में बचपन में देखे गए सपने सच होते है।इसी जवानी में किया गया बचपना तो सबको याद रहता है।
अब अपने टॉपिक पर आते है अर्थात् 19 मई 2018की सुबह पर क्योंकि आज कई बार मुझे तुम्हारी याद आई मेरे प्रिय मेरे अनुज अर्थात् छोटे भाई जब आज मै सुबह उठा तो अकेला था अपने 12 बाई 10के आशियाने में यूं तो कई बार अकेले रहा हूं किन्तु आज ये दीवारें और छत ऐसा फील करा रही थी जैसे इन्हे भी कल तुम्हारे कानपुर चले जाने की जानकारी हो गई हो और यह दरवाज़ा को अक्सर मेरे जागने पर खुला मिला करता था तुम मुझसे पहले उठकर खोल दिया करते थे उसे , वह आज बन्द ही था ।और फोल्डिंग पर बिगड़ा सा बिस्तर भी तुम्हारे चले जाने का एहसास करा रहा था जिसे तुम ठीक कर दिया करते थे अन्य दिनों। शायद बाहर किचेन के दरवाजे पर बन्द ताले को भी पता था तुम्हारी रवानगी का जो बीते दिनों मेरे जगने पर खुला रहता था तुम खोलते थे उसे।तुम यूं तो कई बार नहीं होते थे मेरे साथ जब गाव या कहीं और गए होते थे किन्तु इतना सूनापन किसी भी दिन महसूस नहीं हुआ यार।
यार सच बताऊं मेरे जैसा ही अकेलापन मेरे टूथब्रश भी फील कर रहा था शायद जो आज ब्रशदानी में अकेले था और बड़ी खामोशी से मेरा इंतजार कर रहा था जब मै सुबह फ्रेश होकर ब्रश के लिए गया ना उसे बाहर की तरफ झुके देखकर तुम्हारे इलाहाबाद से चले जाने का एहसास हो गया जो पता नहीं क्यों बहुत ही भावुक पल था तुम बहुत ज्यादा याद आ गए थे ।तुम्हारे ब्रश के गीलेपन से पता लगा लेता था मै की तुम ब्रश कर चुके हो और अब अपना पसंदीदा सूजी का हलवा बनाओगे। और दीवाल पर हैंगर की ये खाली खूटियां तुम्हारी याद ला देती हैं मन में। दरवाजे के बाहर अब केवल मेरे ही शूज दिखते है। और खाना बनाने और पीने के लिए टुल्लू का ताजा पानी में अक्सर भरना भूल जाता हूं तुम भर लिया करते थे ना रोज़ नहाने से पहले ।यार समस्या तो शाम को होती है जब गाड़ी अंदर करना होता है जब मै पढ़ाकर शाम को आता था तुम हॉर्न की आवाज़ सुनकर नीचे आ जाते थे और गाड़ी का हैंडल संभाल लेते थे और मै आगे का पहिया हल्का सा उठाकर अंदर को तरफ खींचता तुम पीछे से धक्का देते गाड़ी रोज़ इस मशक्कत के बाद झपाक से अंदर हो जाती किसी दिन जब गाड़ी अंदर करना भूल जाते तो तुम्हे जरूर याद आ जाता था और तुम कहते ' भईया गाड़ी अंदर करै ना भूला करा ' तब से मैंने पौने 10 का रिमाइंडर सेट कर लिया था मोबाइल में जो अब रोज़ बोलता है समय पर गाड़ी अंदर करने को।यार अब तो सोचता हूं गाड़ी बाहर निकालने से पहले क्योंकि अंदर रखवाने के लिए शाम को किसी और से कहना पड़ेगा जो तुम्हारी अभ्यस्त नहीं हैंडल संभाल कर गाड़ी को धक्का देने में इसलिए मै अब सायकल से से ही चला जाता हूँ पढ़ाने के लिए अक्सर।
हम जिन्हें छोड़कर जाते है उन्हें हमारी याद के साथ साथ उनसे जुड़ा हमारा एहसास भी उन्हें हर पल हमारी याद दिलाता रहता है जो शायद बहुत कष्टकारी होता है।
' तुम नहीं हो साथ तो क्या हुआ तुम्हारे एहसास मेरे साथ हर पल हैं'।
