चौराहे की शाम
चौराहे की शाम
शाम की ठंडक फिज़ा में घुल ही रही थी कि मुझे अचानक चौराहे पर गोलगप्पो की रेढ़ी लगाने वाले मौर्या जी की याद आ गई। ठंड की शाम थी और बाल्टी में पानी भरकर घर के चारों ओर छिड़कने का काम मेरा था, जैसे ही दिन भर कड़ाके की धूप में झुलसी ज़मीन पर पानी की बूँद पड़ती, एक सौंधी-सौंधी खुशबू गोलगप्पों की याद दिला जाती।
जैसे-तैसे मैंने काम ख़त्म किया, तुरंत हाथ-पैर धोकर, तैयार होकर गाँव की दूसरी तरफ़ निकल गया। वहाँ चौहान साहब अपनी पूरी मंडली के साथ रोज़ की तरह अपनी लुधियाना फॅक्टरी मिल के किस्से सुना रहे थे। वहाँ चाचा भी एक तरफ़ सिगड़ी में गर्माहट के मज़े ले रहे थे। मुझे देखते ही तुरंत पूछा, "कहो तूफ़ान सिंह कहाँ चल दिए।"
(वैसे मेरा नाम तूफ़ान सिंह नहीं है, वो तो गाँव में कुछ दिनों पहले किसी के यहाँ शादी थी तो उन्होंने नौटंकी का कार्यक्रम रखा था, जिसमें तूफ़ान सिंह नाम का एक लूटेरा डाकू होता है जो लूटपाट के सामान को गरीबों में बाँट दिया करता था। चाचा को वह क़िरदार इतना पसंद आया की वे मुझे तबसे तूफ़ान सिंह कहने लगे।)
मैं आँखों से इशारा करते हुए उनके पास पहुँचा. चाचा तुरंत समझ गए मैं अक्सर चाचा से चाट, बताशे मँगवाया करता था लेकिन ठंड के मारे चाचा सिगड़ी के सामने से हटने को तैयार नहीं थे, लेकिन मेरे पास भी चाचा के कई ऐसे किस्से थे जो अभी तक चाची को नहीं पता थे। चौराहा गाँव से थोड़ी ही दूर पर था। हमने अपनी ए वन साइकिल निकाली, जिसे चाचा हमेशा जैसे ही चाची को पता चला कि हम चौराहे पर जा रहे हैं, उन्होंने सामान की लंबी लिस्ट सहित एक कपड़े का झोला थमा दिया। हमेशा की तरह चाचा साइकिल चला रहे थे और मैं आगे साइकिल के डंडे पर बैठा हुआ था।
गाँव की गलियों से हम जब भी गुज़रते थे लोगों के सवालों की बौछार हो जाती थी। सबके सवालों का जवाब देते हुए हम गाँव से बाहर निकले। नर्म सी ठंड एक अलग ही एहसास करा रही थी। चाचा ने पैडल की रफ़्तार बढ़ाई और धन्नो जैसे हवा में उड़ने लगी। थोड़ी धुंध भी थी, जो बढ़ते रफ़्तार के साथ धीरे-धीरे कम होती जाती थीं। कुछ मिनटों बाद हल्की-हल्की रोशनी दिखाई देने लगी। ये सड़क, उस पर परचून की दुकान लगाने वाले गुप्ता जी की थी।
चूंकि चौराहे के पास से बिजली के बड़े-बड़े खंबे गड़े हुए थे तो कुछ लोगों ने देसी कटिआ लगाकर चौराहे को रोशन कर रखा था। मौर्या चाट भंडार अपनी उसी पुरानी जगह पर बरक़रार था। चाचा ने मुझे रेढ़ी के पास बिठाकर घर का सौदा लेने चले गए।
मौर्या जी कि एक छौंक ने दुकान के सामने जमी सारी धुंध को यूँ ग़ायब कर दिया जैसे जिन्न। उस दिन की चाट को और स्वादिष्ट बनाने में, ठंड का बहोत बड़ा हाथ था। परेशानियों में उलझी चेहरे की वो सिलवटें चाट की ख़टास में कहीं गयाब सी हो जाती थी और चेहरा खिल उठता था।
दिन भर कारीगर का काम करने वाले मौर्या जी का व्यक्तित्व उनकी बनायी हुयी चाट में साफ़ झलकता था। उनका थका हुआ शरीर और काम नहीं कर सकता था लेकिन लोगों के चेहरे की ख़ुशी कहीं न कहीं उनसे ये सब करवाती थी। अगर अपनी पूरी जिंदगी में किसी ने सबसे ज़्यादा ख़ुश चेहरे देखे होंगे तो मौर्या जी कि ही तरह बताशों में खट्टी-मीठी यादें बाँटने वाले।
वहाँ कई थे, इन्हीं शाम के शहजादों ने चौराहे की हर मोड़ को तीखा कर रखा था। धुँधली सी शाम में ठंड-गर्म सी फिज़ा और तीखी छौंक वाली चटपटी सी चाट, अगर मुझे जिंदगी के पैमाने किन्ही दो शब्दों में समझाना होता तो मेरा एक ही ज़वाब होता "चौराहे की शाम एक अलग ही कोलाहल से भरा हुआ वो चौराहा दिल को खुश कर देता था।
मैं चाट के मज़े ले ही रहा था की चाचा आ गए, शाम भी काफ़ी हो चली थी, उधर राधेश्याम हलवाई जोर-जोर से आवाज़ लगा रहे थे, चाचा ने हवा में हाथ हिलाकर घर जाने का इशारा किया और हम घर की तरफ़ निकल पड़े।
