चौपाल
चौपाल


शाम ढलने को थी। जानवर अपने अपने मालिकों के घरों के आंगन में अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। औरतें अपने शाम की तैयारी में लगी थी। पनघट पर गागर लिए और बाल्टी लिए पहुंच चुकी थी। बस अपनी पानी भरने की बारी आने तक दिन भर की अपनी कथा सुनाकर शाम वाले की भी सुन लेती थी।बच्चों का मेला धूल उठता अपने खेल खेल रहा था। साथ ही दूसरी तरफ कुछ और बच्चे पेड़ की बेलों से झूला झूलते हुए पेंग बड़ा रहे थे। धूल उड़कर सूरज के प्रकाश को और भी हल्का कर रही थी।
ऐसे में पेड़ के नीचे चौपाल की चहल पहल भी बढ़ने लगी थी। सब आकर एक एक करके बैठने लगे। पर सब इस तरह से बैठ रहे थे जैसे किसी का इंतजार हो। आठ दस लोग आकर बैठ गए फिर भी एक स्थान खाली था। अब गाँव का प्रधान आ गया । जो कि एक युवा ही था। ताज्जुब की वो भी आकर उस स्थान पर नहीं बैठा। यह सब नजारा सोहन देख रहा था जो कि पास वाले गाँव का रहने वाला था। वो भी असमंजस में पड़ गया कि आखिर माजरा क्या है।
वो ये सोच ही रहा था कि सामने से एक युवती चलती हुई आ रही थी। सिर पल पल्ला था लेकिन परिधान शहरी लग रहे थे। सब खड़े हो गए और वो भी उस बीच के खाली स्थान पर जाकर बैठने से पहले सभी को प्रणाम करके बैठ गई। यह दृश्य सोहन के लिए बड़ा अजीब था। उसने पता लगाने की कोशिश की तो पता चला कि इस गाँव में लड़कियों को खूब पढ़ाया जाता है। उसी का परिणाम है ये लड़की सीता। एक गरीब लकड़हारे कि बेटी है और अब यहीं गाँव को संवारने में लगी है।
यह गाँव की चौपाल ऐसी लड़कियों की खूब इज़्ज़त करती है। बदले में वे भी गाँवों की कायाकल्प करने में सहायक भूमिका निभाती हैं। ये "चौपालें ऐसी सफल बालिकाओं को और भी देखना चाहती है।" ये कथन गाँव के युवा प्रधान का था।