Dr Vivek Madhukar

Drama

5.0  

Dr Vivek Madhukar

Drama

भोर का सपना

भोर का सपना

4 mins
498


 सुबह एकाएक आँख खुली। खुद को बदहवास, पसीने से लथपथ बिस्तर पर बैठा पाया। बाहर अभी भी धुंधलका था, भोर होने को थी। दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। मन बहुत विचलित था और भयभीत भी। उषाकाल की शांति भी भयावह प्रतीत हो रही थी। 

   दिमाग पर ज़ोर डाला तो चलचित्र की भांति कतिपय क्षणों पूर्व देखा स्वप्न आँखों के आगे घूम गया। 

   प्रारम्भ कुछ धूमिल-सा था। पर मैंने स्वयं को एक बीहड़ वन में खड़ा पाया। एक ऐसा घना अरण्य जिसका न ओर था न छोर। वृक्ष इतने विशाल, उनकी शाखाएँ इतनी विस्तृत कि वे धरा को सूर्य की किरणों से भी वंचित रख रही थीं। बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं मिल रहा था, खो गया था मैं उस वनस्पति-जाल में। 

   दौड़ रहा था इधर-उधर बौखलाया-सा। रौशनी की एक किरण भी दिखती तो बेतहाशा भाग पड़ता था उस ओर पर पुनः अन्धकार से घिर जाता था। 

   थक कर सुस्ता ही रहा था पदचाप सुनाई पड़ी किसी की। लाठी टेकता एक वृद्ध चला आ रहा था। मन ख़ुशी से बल्लियों उछलने लगा। राह पूछने पर उसने एक ओर इंगित करते हुए कहा कि एक कोस चलने पर जंगल से बाहर निकल जाऊँगा। एक क्या, दो कोस निकल गए, पर मार्ग न मिलना था, न मिला। 

   पुनः थक कर बैठ गया। तभी झरने की कल-कल सुनाई दी। देखा एक रमणी गागर भर रही थी। उससे भी मार्ग पूछा। उसने प्रेमपूर्वक रसभरी वाणी से वन से निकलने का मार्ग समझाया। धोखा खा चुके दिल को न जाने क्यों उसकी बातों पे ऐतबार हुआ। पर वही कहानी फिर से दोहरा दी गयी। बाहर निकलने के बजाय और सघन वन में पहुँच गया। 

   और भी लोग मिले राह में - एक बालक, दो हमउम्र पुरुष, एक वनमानुष। हर बार आस बंधी और हर बार उसे निर्ममता से चकनाचूर कर दिया गया। 

   हार गया था मैं। हा देव ! कैसी विषम परिस्थिति में डाल दिया तूने। 

   यूँ प्रतीत होने लगा ज्यों सारा जीवन इस भूलभुलैया में ही बीत जायेगा। एक चट्टान देख बैठ गया उसपर। इंतज़ार करने लगा काल का किसी जंगली जानवर के रूप में जो आकर खा जाये मुझे या फिर वज्र बनकर गिरे मुझपर। 

  तभी एक सुमधुर आवाज़ पड़ी कानों में - "थके प्रतीत होते हो, राहगीर !" सहसा विश्वास नहीं हुआ, लगा बज रहे हैं कान। पुनः वही कर्णप्रिय आवाज़ - "निराशा त्याग उठो मुसाफिर ". आँखें खोलीं तो एक देवी को साक्षात खड़ा पाया। वनसुन्दरी ने अपने जलपात्र से पानी पिलाते हुए पूछा मैं कौन हूँ। सारी कथा उसे कह सुनाई। 

   हंस पड़ी वह मेरी बात सुनकर। बोली - "इस जंगल के रीति-रिवाज़ों से नावाकिफ मालूम पड़ते हो। एक वीभत्स जाल है यहाँ जिसमें फंसाकर एक-दूसरे को सभी पाते हैं पाशविक आनंद। पर बहुत हो चुका तुम्हारे साथ यह खेल। तुम तो अतिथि हो। चलो मेरे साथ। "

   यंत्रवत चल पड़ा उस सुमध्यमा के पीछे। सुरम्य वन के बीच थी कुटिया उसकी। अमृतरूपी द्रव्य पिला कर उसने कर दिया मुझमे नवजीवन का संचार। सहानुभूति दर्शाते हुए उसने मुझे ज़मीन पर नक्शा बना कर सही मार्ग समझाया। 

   विदा ले उससे चल पड़ा मैं स्फूर्त। जल्द ही जंगल की गहनता कम होने लगी। दूर धुआँ उठता दिखा। मन उस अनजान नारी को कोटिशः धन्यवाद देने लगा। क़दमों में ज्यों पंख लग गए हों, खुशखयाली में बढ़ता चला जा रहा था। 

   एकाएक पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक गयी। दलदल में धंसता जा रहा था मैं। सहायता के लिए चिल्लाने लगा। एक नाज़ुक-सी बेल को थाम खड़ा रहा उस भयानक दलदल में। 

  लगा ज्यों कुछ नज़रें भेद रही हैं मुझे। कातर निगाहों से पीछे देखा तो उन सभी लोगों को पंक्तिबद्ध खड़ा पाया जिन्होंने गुमराह किया था मुझे। वह वनसुन्दरी भी खड़ी थी उनके मध्य। मुझे अपनी ओर देखता पा कर सभी अट्टहास करने लगे। 

   चिल्ला पड़ा मैं -"अरे, तुम तो बचाओ मुझे। एक तुम्हीं तो हो जिसमें दिखी थी मिझे आस जावन की। विश्वास टूटने न देना मेरा, ख़त्म हो जाएगी दुनिया से अच्छाई, अंत हो जाएगा भावना का। "

   औरों की तरफ देखा उसने। नकारात्मक इशारा किया सब ने कुटिलता से। वह पेड़ पर चढ़ी और मेरे हाथ से फिसल रही बेल को पकड़कर ऊपर खींचने लगी। मैंने राहत की सांस ली। 

   अचानक उसका गगनभेदी अट्टहास सुनाई पड़ा। ऊपर देखा तो उसके हाथों में चमचमाती दरांती दिखी। कुछ समझ पाता उससे पहले ही काट डाली एक झटके में उसने मेरी अंतिम जीवन-डोर। 

   विस्फारित नेत्र थे मेरे जब आँख खुली, पसीने से लथपथ बदन काँप रहा था, दिल ज़ोरों से धड़क रहा था और मुट्ठियाँ कसी थीं। 


Rate this content
Log in

More hindi story from Dr Vivek Madhukar

Similar hindi story from Drama