अंर्तद्वंद्व
अंर्तद्वंद्व
राधिका अपलक बुद्ध की ओर टकटकी लगाए बैठी थी। अलौकिक तेज से दीप्तिमान, साधना में लीन, शांत चित्त !
इस आस में कि वह कब आँखें खोले और कब वह अंर्तद्वंद्व की पोटली उनके आगे उड़ेल दे।
निरंतर इंतजार से वह उकता गई। शांत मनमोहक वातावरण अब उसे नीरस लगने लगा। मन उचाट हो आया। उसने उकताहट से फिर बुद्ध की ओर देखा। उनके चेहरे पर कोई भाव न थे। सपाट भावहीन चेहरा जिसे सांसारिक मोह माया से कोई लेना-देना ही न हो जैसे।
राधिका के मन में आया- क्या ये समझ पाएंगे मेरे मन की व्यथा ! उसने लंबी आह भरी और उठ खङी हुई। बुद्ध की ओर टकटकी लगाए दो कदम पीछे हुई ही थी कि अचानक...बुद्ध मुस्कुरा दिए, वातावरण आलोकित हो उठा।
राधिका के पीछे जाते कदम ठिठक गए । दिल की धङकनें तेज हो गयी। मुँह से कोई बोल न फूटे। कर्तव्यविमूढ़ सी खङी रही- जाये या रुके !
कुछ पल यूँ ही बीत गये। राधिका की अधीरता चरम पर जा पहुँची। विचारों की उथल पुथल फिर हावी होने को आई। हिम्मत कर कदम उठाया और वापिस जाने का निश्चय कर जैसे ही मुङने को हुई कि सन्नाटे को चीरती बुद्ध की शांत सौम्य वाणी कानों में पङी-
"जीवन जीने के लिए तो बहुत सब्र की जरूरत पङती है, तुम तो अपनी व्यथा कहने तक का भी सब्र नहीं जुटा पाई।" राधिका पर मानों घङों पानी पङ गया हो। निशब्द खङी रह गई।
बुद्ध राधिका की ओर देख धीरे से मुस्कुराए और जो कहा उसे सुन सारे विकार, सारे अंर्तद्वंद्व पल भर में पानी के तेज वेग के साथ बह निकले-
"मन और शरीर दोनों की सेहत का रहस्य है- जो बीत गया उस पर दुःख ना करें, भविष्य की चिंता ना करें और ना ही किसी खतरे की आशा करें बल्कि मौजूदा क्षण में बुद्धिमानी और ईमानदारी से जियें।"