Divik Ramesh

Children

3.2  

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आंखे मूंदो नानी

आंखे मूंदो नानी

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डोलू ने हँस कर कहा - 'नानी आप चाहें तो मैं पहाड़ ला सकती हूँ।'

उसकी बात सुनकर नानी चौंकी। बोलीं - ‘हे भगवान! यह लड़की है कि तूफान। पता नहीं क्या तो इसके दिमाग में है। फिर बोलीं - ‘लेकिन कैसे? क्या तुम्हारी कोई परी दोस्त है, जो मदद करेगी ?’

-‘हाँ नानी! है न मेरी परी दोस्त। एक नहीं, कई।’

‘अच्छा!’- नानी ने आश्चर्य से आँखें फैलाई - ‘पर तुझ पर विश्वास कौन करेगा। कम्प्यूटर के इस ज़माने में कैसी कैसी बातें कर रही है?’

-‘बस नानी जब देखो तब अपनी ही बातें करती हो। मुझे परियां अच्छी लगती हैं। वही मेरी दोस्त हैं।

-‘अच्छा क्या तुम्हारी परी पहाड़ उठा सकती है?’ - नानी ने बात टालने की नीयत से पूछा।

-‘हाँ हाँ !’

-‘पर परी तो कोमल होती है?’

-‘हो सकता है, पर उसमें ताकत बहुत है। वह बहुत कुछ कर सकती है। एक बार मैंने परी दोस्त से कहा कि धरती पर खड़ी खड़ी तारा छुओ। परी ने मुझे गोद में उठाया और लम्बी, और और लम्बी, और और और और लम्बी होती चली गई। और पहुँच गए हम तारे के पास। मैंने तो खूब खूब छुआ तारे को। खेली भी।

नानी को लगा कि कहीं डोलू की बात सच तो नहीं है। पूछा - ‘और क्या क्या था तारे पर?’

 डोलू को इस बार नानी की जिज्ञासा अच्छी लगी। डोलू की बात पर अब उनका शक कम जो हो रहा था। उसने उत्साह से जवाब दिया,  - ‘तारे पर बड़े ही लम्बे-लम्बे बच्चे थे। बांस जैसे!  नीचे खड़े खड़े ही पहली मंजिल की छत से सामान उतार सकते थे। मुझे तो ऐसा लगा जैसे कुतुब मीनार के पास खड़ी हूँ। सच्ची! और इससे भी मज़ेदार बात यह है कि उनके माँ-बाप कद में बौने थे।’

‘एँ।’ नानी इस बार सचमुच चौंक गई थी।

-‘हाँ, मुझे भी अचरज हुआ था नानी। पर परी दोस्त ने बताया कि तारे की धरती और हमारी धरती में अन्तर है। तारे की धरती पर आयु बढ़ने के साथ कद छोटा होता है धरती पर बड़ा।’

‘और क्या वे बोलते भी थे। तूने बात की।’ - नानी ने पूछा।

‘हाँ हाँ नानी, खूब बातें की। पर मैं आपको बताऊंगी नहीं। - अरे मैंने तो परी को नदी उठाकर आसमान में उड़ते भी देखा है।’ - डोलू ने बताया।

-‘नदी को उठाकर! और पानी?’

-‘अरी नानी पानी समेत। बिल्कुल लहराते लंबे-से कपड़े सी लग रही थी। दूर दूर तक। कितना मज़ा आया था।’

नानी को डोलू की बात पर विश्वास तो नहीं हो  रहा था, पर मज़ा बहुत आ रहा था।

डोलू नाराज होकर कहीं बात रोक ही न दे, इसका भी तो डर था न? सो बोली - ‘अच्छा डोलू तू तो हर रोज़ ही परी से मिलती है, परी कभी थकती भी है कि नहीं।’

‘थकती है न नानी। जब कोई उस पर विश्वास नहीं करता। जब कोई उसे बोर करता है, तो बहुत थक जाती है। ऐसे लोगों को वह पसन्द तक नहीं करती। तभी तो न मैं उस पर शक करती हूँ और न ही उसे बोर करती हूँ।’

‘चलो आज से मैं भी तुझ जैसी ही हो गई।’ - नानी ने कहा।

‘तो सुनो नानी। एक बार मुस्कुराते हुए परी ने कहा - 'चलो आज तुम्हें पूरा जंगल निगल कर दिखाती हूँ। सुनकर मुझे कुछ कुछ अविश्वास हुआ। जाने क्यों? पर देखते ही देखते परी का मुँह उतरने लगा। उदासी छाने लगी। मैंने झट से अपनी गलती समझी। परी पर विश्वास किया। परी के मुँह पर खुशी लौट आई। वह मुझे जंगल के पास ले गयी। कितना बड़ा और गहरा जंगल था। सब तरह के जानवरों से भरा। और न जाने क्या क्या। परी ने देखते ही देखते पूरा जंगल निगल लिया। मैं तो अचरज से भरी थी। पर खुश बहुत थी। मैंने पूछा - तुम्हारे पेट में जंगल क्या कर रहा है?’ परी बोली-

‘‘लो तुम ही देख लो और सुन भी लो।’’ परी ने आँख जैसा कोई यंत्र मेरी आँखों पर लगा दिया। यह क्या! मैं तो उछल ही पड़ी थी। परी के पेट में पूरा का पूरा जंगल दिख रहा था न। जैसे जंगल को ‘मूविंग कैमरे’ से देख रहे हों। पेड़ हिल रहे थे। जानवर घूम रहे थे। पक्षी बोल रहे थे। नदी बह रही थी।

मैंने पूछा - ‘‘परी, यह जंगल अब क्या तुम्हारे पेट में ही रहेगा ?’’

परी बोली- ‘‘नहीं नहीं। मैंने तो इसे बस तुम्हें मज़ा देने के लिए निगला था। जंगल तो मेरा दोस्त है। बल्कि हर आदमी का दोस्त है। क्या क्या नहीं देता आदमी को। जंगल खत्म हो जाए तो आदमी का जीना ही दूभर हो जाए। पता नहीं कैसे राक्षस हैं वे लोग जो जंगलों को काट कर तबाह कर रहे हैं। लो यह रहा तुम्हारा जंगल।” कहते कहते परी ने जंगल उगल दिया।

जंगल फिर अपनी जगह था। ‘धुला धुला’ शायद परी के पेट में धुल गया था।

नानी को सिरे से विश्वास नहीं हो रहा था। पर डोलू का मन रखने और उसकी बातों का मज़ा लेने के लिए उत्सुकता ज़रूर दिखा रही थी। सकते हैं। उधर डोलू को पूरा मज़ा आ रहा था। बातें सुनाने का अपना ही मज़ा है। वह भी उत्सुकता के साथ सुनने वाला मिल जाए तो क्या कहने। खुश होकर बोली- 'नानी आप विश्वास करें, तो एक और कारनामा बताऊँ। एकदम सच्चा। वैसा का वैसा’

- हाँ हाँ, ज़रूर सुनाओ!’’

डोलू हँसी। मानो नानी को हरा दिया हो। उसका चेहरा गर्व से भर उठा था। चेहरे पर आत्मविश्वास लबालब झलक रहा था। थोड़ा पानी पीया और दादी-नानी की तरह खँखारा। बोली-

‘नानी, परी तो अपनी आँखों में पूरा समुद्र भी भर सकती है। मछलियों और जीव-जन्तुओं समेत। बिल्कुल ‘एक्वेरियम’ लगती हैं तब परी की आँखें।  एक बार तो सारे बादल ही पकड़ कर अपने बालों में भर लिए थे। बाल तब कितने सुन्दर लगे थे। काले-सफेद। फूले फूले से। मैंने हाथ लगा कर देखा तो गीले भी थे। ऐसा लग रहा था जैसे परी ने बादलों का  एक बहुत बड़ा टोप पहन लिया हो। पर थोड़ी ही देर में परी ने उन्हें छोड़ भी दिया। अगर उन्हें पकड़े रखती तो बारिश कैसे होती? और बारिश न होती तो पूरी धरती को कितना दुःख पहुँचता। परी कहती है कि हमेशा हमें पूरी धरती का हित करना चाहिए। कोई भी नुकसान पहुंचाने वाली बात नहीं करनी चाहिए। ‘नानी मैं भी किसी को कभी भी नुकसान नहीं पहुँचाऊँगी, प्रॉमिस.......;

अरे हाँ, वह बात तो भूल ही चली थी।’ डोलू ज़ोर-ज़ोर से हँसी - ‘कितना मज़ा आया था! मैं परी के साथ एक दिन स्टेशन गई। यूँ ही घूमते - घूमते। रेलगाड़ी आई। पता नहीं मुझे क्या हुआ। मैंने परी से कहा कि क्या रेलगाड़ी को अपनी हथेली पर उठा सकती हो? परी बोली - ‘‘लो।’’ और देखते ही देखते परी ने पटरी और स्टेशन समेत रेलगाड़ी को अपनी हथेली पर उठा लिया। मैंने जब पूछा कि रेलगाड़ी में बैठे आदमी अब अपनी-अपनी जगह पहुँचेंगे कैसे? तो परी ने अपने कान के पास लगी बटन जैसी चीज़ को दबाया। कमाल ही हो गया। रेलगाड़ी चलने लगी। स्टेशन आने लगे। लोग उतरने और चढ़ने लगे। मैं तो पूरी हैरान थी। आपकी ही तरह नानी।’ नानी तो जैसे डोलू की बातों में पूरी तरह डूब चुकी थी।

-‘नानी कहीं आप झूठ तो नहीं समझ रही न?’

नानी जरा सम्भली। आँखें मसली। सिर को भी सहलाया। बोलीं - ‘नहीं- नहीं  डोलू! सच जब ऐसे - ऐसे कारनामे अपनी आँखों से देखूँगी तो कितना मज़ा आएगा। सच, मैं तो अविश्वास की बात मन में लाऊँगी तक नहीं।’

‘हाँ- हाँ, मैं उससे आपको मिला दूँगी! डोलू की आवाज में गजब का  विश्वास था। ‘पर पहले यह तो बताओ कि मैं पहाड़ लाकर दिखाऊँ?’

      ‘अच्छा, दिखा। पर चोट नहीं खा जाना। -नानी ने बच्चों की तरह कहा।

-‘तो फिर आँखें मूँदो। मैं अभी आई पहाड़ लेकर।

नानी ने आँखें मूँद ली।  बच्ची जो बन गई थीं। डोलू थोड़ी ही देर में पहाड़ लेकर आ गई। बोली

- ‘नानी आँखें खोलो और देखो यह पहाड़!’ नानी ने आँखें खोल दी। पूछा - ‘कहाँ?’

-‘यहाँ। यह क्या है?’

-‘पहाड़!’

अब क्या था, दोनों खूब हँसी, खूब हँसी। नानी ने डोलू को खींचकर उसका माथा चूम लिया।

प्यार से बोली - ‘तुम सचमुच बहुत नटखट हो डोलू!’

असल में डोलू ने एक कागज पर पहाड़ का चित्र बना रखा था। उसी को दिखाकर जब उसने नानी से पूछा - ‘यह क्या है’ तो नानी के मुँह से सहज ही निकला - ‘पहाड़!’

नानी ने अब डोलू से मुस्कुराते हुए पूछा - ‘भई डोलू अपनी परी दोस्त से भला कब

मिलवाओगी?

-‘कहो तो अभी।’

-‘ठीक है। मिलाओ!’

-‘तो करो आँखें बन्द। पर ‘चीटिंग’ नहीं।’

नानी ने आँखें मूंद ली। थोड़ी ही देर में डोलू ने कहा - ‘नानी आँखें खोलो।’ नानी ने आँखें खोल

दीं। पूछा - ‘कहाँ है परी?’

‘तो यह क्या है?’

‘परी।’ - नानी ने कहा।

दोनों फिर खूब हँसी, खूब हँसी। असल में इस बार डोलू ने अपनी ही फ्रॉक पर कागज़ लगा रखा था। जिस पर लिखा था - ‘परी।’

 नानी ने हँसते - हँसते पूछा - ‘‘और वे सब कारनामे?”

‘आप अविश्वास तो नहीं करेंगी न नानी?’ - ‘डोलू ने थोड़ा गम्भीर होते हुए पूछा।

-‘अरे, नहीं।’

- ‘जब परी मैं हूँ तो कारनामे भी तो मेरे ही हुए न!’

नानी की आँखें खुशी से भर आईं। सोचा - ‘कितनी कल्पनाशील है मेरी बच्ची। बड़ी होकर एक अच्छी माँ ही नहीं बहुत बढ़िया दादी और नानी भी बनेगी।’

और वह रसोई में चली गई। क्यों? सोचो!

 

 


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