यूं ही
यूं ही
यूं ही कभी कभी,
न जाने क्यूं उदास हो जाती हूं।
यूं हीं बोलते बोलते,
जाने क्यूं ठहर जाती हूं।
यूं ही छोटी छोटी बातें,
जाने कब आँखें भर देती हैं।
यूं ही एक छोटी सी बात,
जाने क्यों दिल में दफ़न
दर्द जगा जाती है।
यूं ही कई छोटी सी बातें,
न जाने कब ग़मों का सैलाब बन,
आंखों से झर झर बहने लगती है।
यूं ही गमों के दरिया में,
न जाने कब बहने लगती हूं।
अनजाने ही अपने दुनिया में बंद,
चुप चुप रहने लगती हूं।
न किसी से कुछ कह पाती हूं,
न ही दर्द सह पाती हूं।
फिर एक दिन खत्म हो जाता है,
वो एक और ग़मगीन किस्सा,
जिसका न तो कोई श्रोता था
और न ही कोई दर्शक्।
मरहूम हो जाता है वो किरदार,
मरहूम रह जाता है वो किस्सा,
जाने क्यों यूं ही।